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पीएम मोदी का अमेरिका दौरा और क्वाड सम्मेलन राष्ट्रपति बाइडन के कार्यकाल के अंतिम दिनों में अहम क्यों है?

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Getty Images प्रधानमंत्री मोदी के साथ, अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन (फाइल फोटो, 2023)

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तीन-दिवसीय अमेरिका यात्रा ऐसे वक़्त में हो रही है जब अमेरिका में कुछ ही हफ़्तों में नए राष्ट्रपति का चुनाव होने वाला है, और ये साफ़ है कि बाइडन राष्ट्रपति नहीं होंगे.

अमेरिका का नया प्रशासन या तो कमला हैरिस या डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व में काम करेगा.

प्रधानमंत्री मोदी की इस अमेरिका यात्रा में कई अहम कार्यक्रम निर्धारित हैं.

कई दूसरे वैश्विक नेताओं के साथ सोमवार को वो संयुक्त राष्ट्र महासभा में 'समिट ऑफ द फ्यूचर' को संबोधित करेंगे. इस शिखर सम्मेलन का लक्ष्य जलवायु परिवर्तन, टेक्नोलॉजी और असमानता जैसी बड़ी चुनौतियों से निपटना है.

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इससे पहले, शनिवार (भारतीय समयानुसार रविवार तड़के) को प्रधानमंत्री मोदी ने, बाइडन के गृहनगर विलमिंगटन में आयोजित क्वाड शिखर सम्मेलन में हिस्सा लिया. साथ ही राष्ट्रपति बाइडन के साथ उनकी द्विपक्षीय बातचीत भी हुई.

इन सबके बीच प्रधानमंत्री मोदी उद्योग जगत के नेताओं से मुलाक़ात करेंगे और रविवार को भारतीय प्रवासियों की सभा को संबोधित करेंगे.

बाइडन से परे भारत-अमेरिका संबंध

साल 2006 में जब अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन एक सीनियर सीनेटर हुआ करते थे, उन्होंने भारतीय पत्रकार अज़ीज़ हनीफ़ा को दिए एक इंटरव्यू में कहा था, ''साल 2020 में भारत और अमेरिका, दुनिया के दो सबसे क़रीबी देश होंगे.''

ये इंटरव्यू तब लिया गया था जब असैन्य परमाणु समझौते पर अमेरिकी सीनेट में बातचीत चल रही थी.

इस इंटरव्यू के दौरान बाइडन ने ये भी उम्मीद जताई थी कि 21वीं सदी में वैश्विक सुरक्षा के निर्माण के लिए जो तीन या चार स्तंभ होंगे उनमें से भारत और अमेरिका दो होंगे.

image ANI शनिवार को अमेरिका दौर के लिए फिलाडेल्फिया इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर पहुंचे प्रधानमंत्री मोदी

ऐसे में भले ही राष्ट्रपति बाइडन के कार्यकाल के अब कुछ ही दिन बचे हैं, इसके बावजूद प्रधानमंत्री मोदी से उनकी मुलाक़ात अहम है.

विश्लेषक सी राजा मोहन लिखते हैं, ''2020 के आख़िर में ये सवाल था कि क्या बाइडन प्रशासन, ट्रंप के कार्यकाल के दौरान तय की गई इन तीन नीतियों को बनाए रखेंगे- अफ़ग़ानिस्तान में सैन्य मौजूदगी जारी रखने की नाकामी को मानना, पाकिस्तान के साथ संबंधों में गिरावट और एशिया में चीनी आक्रामकता का सामना करना.''

''पहले दो फैक्टर्स ने अमेरिका की रणनीति के लिहाज़ से पाकिस्तान को हाशिए पर धकेला... तीसरा फैक्टर, बीजिंग को वॉशिंगटन के सामने एक चुनौती के तौर पर पेश करता है, वो भी चार दशक तक चीन को अमेरिका के साझेदार के तौर पर मानने के बाद.''

विश्लेषकों का मानना है कि जो बाइडन उन लोगों में से हैं जो अमेरिका-भारत के संबंधों को मज़बूत करने में व्यक्तिगत तौर पर रुचि रखते हैं.

वॉशिंगटन डीसी के विल्सन सेंटर थिंक टैंक में साउथ एशिया इंस्टीट्यूट के निदेशक माइकल कुगेलमैन कहते हैं, ''ये (बाइडन) वही हैं जिन्होंने इन संबंधों को 21वीं सदी की सबसे महत्वपूर्ण अमेरिकी साझेदारियों में से एक कहा है. बाइडन एक ऐसे शख़्स हैं, जिनकी इस संबंध को मज़बूत करने में वास्तविक तौर पर रुचि है.''

भारत-अमेरिका के बीच कारोबार 200 बिलियन अमेरिकी डॉलर के पार जाने का अनुमान है और अमेरिका, भारत के शीर्ष कारोबारी साझेदारों में से एक है.

साथ ही भारत, चीन के विकल्प के तौर पर एक ग्लोबल मैन्युफेक्चरिंग हब बनने के लिए कदम उठा रहा है और अमेरिका का सहयोग इसमें अहम है.

image BBC

इस दिशा में जनवरी 2023 में 'क्रिटिकल और इमर्जिंग टेक्नोलॉजीज़' पर दोनों देशों के बीच की गई पहल एक महत्वपूर्ण कदम था, जिसका मकसद था, ''हमारे दोनों देशों की सरकारों, व्यवसायों और शैक्षिक संस्थानों के बीच स्ट्रैटेजिक टेक्नोलॉजी पार्टनरशिप और डिफ़ेंस इंडस्ट्रीयल सहयोग को बढ़ाना और उसका विस्तार करना.''

वॉशिंगटन में आलोचक प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में 'लोकतांत्रिक गिरावट' पर सवाल उठा रहे हैं. लेकिन अमेरिका के दोनों ही बड़े दलों में इस बात की सहमति है कि दोनों देशों के बीच संबंधों को और गहरा किया जाए.

इसकी एक वजह ये है कि भारत को इंडो-पैसिफ़िक में चीन के बढ़ते प्रभाव का मुक़ाबला करने के नज़रिए से देखा जाता है. हालांकि, भारत का नज़रिया अलग है.

जॉन्स हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी में अप्लाइड इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर और राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन की आर्थिक सलाहकार परिषद के पूर्व सदस्य स्टीव एच. हैंकी कहते हैं, ''एक अंतरराष्ट्रीय मंच पर होना सिर्फ़ उनके लिए ही नहीं बल्कि भारत के लिए भी अच्छा है. मोदी का ध्यान डिफ़ेंस, टेक्नोलॉजी और इंफ्रास्ट्रक्चर पर होगा.''

image BBC ऐतिहासिक संबंध

राष्ट्रपति बाइडन का कार्यकाल अब कुछ हफ़्तों का ही है लेकिन प्रधानमंत्री मोदी से उनकी मुलाक़ात अहम है.

अमेरिका के साथ भारत का सबसे महत्वपूर्ण समझौता, असैन्य परमाणु समझौता, अक्टूबर 2008 में साइन किया गया था, वो भी ऐसे वक्त जब राष्ट्रपति बुश का कार्यकाल अंतिम दिनों में था.

image Getty Images देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन (2000)

इसी तरह, साल 2000 में राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने अपने दूसरे कार्यकाल में भारत का ऐतिहासिक दौरा किया था, जिससे दोनों देशों के बीच रिश्ते मज़बूत हुए थे.

इस दौरे को ''पथ-प्रदर्शक'' माना जाता है, क्योंकि साल 1998 में हुए परमाणु परीक्षणों के बाद दोनों देशों के बीच के संबंधों में खटास आई थी और इसके बाद ये दौरा हुआ था.

हडसन इंस्टीट्यूट में दक्षिण एशिया की विशेषज्ञ अपर्णा पांडे कहती हैं कि ऐसे संबंधों को अमेरिका के दोनों ही प्रमुख दलों का समर्थन है और चुनाव के नतीजों से इस पर फर्क नहीं पड़ता. वो कहती हैं, ''डेमोक्रेट्स और रिपब्लिकंस दोनों ही भारत को महत्वपूर्ण साझेदार और दोस्त की तरह देखते हैं.''

क्वाड समिट: बाइडन की आख़िरी कोशिश

ये बतौर राष्ट्रपति, बाइडन का आख़िरी शिखर सम्मेलन होगा और इसमें प्रधानमंत्री मोदी की भागीदारी बेहद अहम होगी.

साल 2004 में क्वाड ने एक मूर्त रूप लेना शुरू किया था लेकिन यह तब तक रफ़्तार हासिल नहीं कर सका जब तक ट्रंप और बाइडन ने इसे शिखर सम्मेलन के स्तर तक नहीं पहुंचाया.

क्वाड को भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के बीच सहयोग के लिए जाना जाता है, साथ ही अक्सर इसे इंडो-पैसिफ़िक में चीन के बढ़ते प्रभाव का मुक़ाबला करने के लिए बनाए गए एक प्लेटफॉर्म के तौर पर देखा जाता है.

विश्लेषक सी राजा मोहन लिखते हैं, ''बाइडन ने भारत के नज़रिए के साथ जाने का फ़ैसला लिया कि क्वाड को सैन्य गठबंधन के तौर पर विकसित नहीं किया जाना चाहिए बल्कि इसे इंडो-पैसिफ़िक में सार्वजनिक सेवाएं मुहैया कराने वाले मंच के तौर पर देखा जाना चाहिए.''

''इससे समंदर के मामले में जागरूकता, मानवीय सहायता, आपदा राहत, साइबर सिक्योरिटी, टेलीकम्युनिकेशन और स्वास्थ्य जैसे कई क्षेत्रों में आपसी सहयोग को विस्तार मिला है.''

image Getty Images 2023 के क्वाड समिट की तस्वीर, चारों देश के नेता एक साथ

वैसे तो इस शिखर सम्मेलन का मुख्य ध्यान वैश्विक कारोबार और सुरक्षा के लिहाज़ से अहम इंडो-पैसिफ़िक क्षेत्र में शांति और स्थिरता को बढ़ावा देने पर है, लेकिन इन सबके साथ उम्मीद थी कि ग़ज़ा पर इसराइल की सैन्य कार्रवाई पर भी बातचीत हो सकती थी जो नहीं हुई. हालांकि रूस-यूक्रेन युद्ध पर ज़रूर चर्चा हुई.

प्रोफ़ेसर हैंकी कहते हैं, ''क्वाड अब तक महत्वहीन रहा है, ये सिर्फ़ चीन को नियंत्रित करने की अमेरिकी कोशिश है.''

अपर्णा पांडे इस बात पर ज़ोर देती हैं कि भले ही क्वाड कोई सुरक्षा गठबंधन नहीं है, लेकिन इसके तीन सदस्य देशों के बीच सुरक्षा संधि है.

वो कहती हैं, ''क्वाड कई छोटे क्षेत्रीय समूहों में से एक है, जिसका मक़सद चीन के विस्तारवाद का मुक़ाबला करना है.''

माइकल कुगेलमैन का तर्क है कि क्वाड ने भले ही शुरुआत में रफ़्तार पकड़ने में संघर्ष किया हो लेकिन क्वाड के चारों सदस्यों और चीन के संबंधों में गिरावट की वजह से इसमें प्रगति दिखी है.

उनका कहना है, ''साझा अनुभव ने क्वाड के सदस्यों को एकजुट किया है, जिससे ये ठोस कामकाज की दिशा में आगे बढ़ा है.''

''सभी चारों सदस्यों ने चीन के साथ अपने संबंधों को सबसे निचले स्तर पर जाते हुए देखा है. इन देशों के साझा अनुभव इन्हें वास्तविक तौर पर साथ लेकर आए हैं और ठोस क़दम उठाने में मदद की है.''

''इस तरह से ये ही एकजुटता का कारक है. जिसने इन देशों को साथ मिलकर काम करने पर और ठोस कदम उठाने पर मजबूर किया है.''

image @MEAIndia शनिवार को हुए क्वाड सम्मेलन से पहले की तस्वीर 'समिट ऑफ द फ्यूचर'

इस शिखर सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र, ख़ासकर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) के लिए व्यापक अंसतोष दिखने का अनुमान है, इसमें भारत के एक बार फिर से यूएन सुधारों और अपनी स्थायी सदस्यता पर ज़ोर देने की संभावना है.

स्टीव हैंकी कहते हैं, ''समिट ऑफ द फ्यूचर में मोदी 'सॉन्ग ऑफ़ द साउथ' (ग्लोबल साउथ की बात रखेंगे) गाएंगे, जो चीन के पक्ष में है.''

अपर्णा पांडे यूएनएसएसी सुधारों को एक ''लंबी और जटिला प्रक्रिया'' के तौर पर बताती हैं, जिसमें रातों रात बदलाव नहीं आएगा.

माइकल कुगेलमैन मानते हैं कि यूएन जैसे बड़े ब्यूरोक्रेटिक संगठनों में सुधार लाना कठिन है.

वो कहते हैं, ''सुधार, चुनौतीपूर्ण हैं, लेकिन ग्लोबल साउथ में यूएन और दूसरे अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में आज की वास्तविकताओं के आधार पर बदलाव के लिए समर्थन बढ़ रहा है.''

अपर्णा पांडे कहती हैं कि पश्चिमी देश इन सुधारों का सैद्धांतिक तौर पर समर्थन करते हैं लेकिन असली चुनौती वीटो रखने वाले यूएनएससी सदस्यों का समर्थन हासिल करने की है.

ये देखना होगा कि क्या वो ठोस कदम उठाएंगे.

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित

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