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चैत्र नवरात्रि में जानिए विंध्याचल की तीन दिव्य देवियों की रहस्यमयी गाथा

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चैत्र नवरात्रि में जानिए विंध्याचल की तीन दिव्य देवियों की रहस्यमयी गाथा

चैत्र नवरात्रि का पावन समय देवी शक्ति की आराधना का विशेष पर्व है। नवरात्रि के पांचवें दिन देवी स्कंदमाता की पूजा होती है, जिन्हें समृद्धि, संतान और मातृत्व की देवी माना जाता है, जबकि छठा दिन देवी कात्यायनी को समर्पित होता है। इसी अवसर पर हम बात कर रहे हैं विंध्याचल की तीन प्रमुख देवियों की, जिनसे एक दिव्य त्रिकोण की रचना होती है। ये तीनों देवी स्वरूप हैं – महालक्ष्मी रूपी माता विंध्यवासिनी, रक्तासुर का वध करने वाली माता काली, और ज्ञान-शक्ति की प्रतीक मां अष्टभुजा।

विंध्याचल की तीन देवियां

  • देवी विंध्यवासिनी (महालक्ष्मी रूप में)

  • माता काली (महाकाली स्वरूप)

  • देवी अष्टभुजा (महासरस्वती स्वरूप)

  • इन तीनों शक्तिस्वरूपा देवियों के दर्शन का विशेष महत्व है। नवरात्रि के दौरान मिर्जापुर स्थित विंध्याचल में इन शक्तिपीठों पर श्रद्धालुओं का जनसैलाब उमड़ता है।

    विंध्यांचल: एक दिव्य शक्ति त्रिकोण

    विंध्य पर्वत के उत्तर-पूर्व दिशा में देवी विंध्यवासिनी विराजमान हैं। दक्षिण दिशा में माता काली का मंदिर है, और पश्चिम दिशा में देवी अष्टभुजा स्थित हैं। इस त्रिकोण के केंद्र में ऊर्जा और आस्था का केंद्र बनता है, जो इसे एक जीवंत शक्तिपीठ का रूप देता है।

    देवी काली: रक्तासुर वध की गाथा

    शास्त्रों के अनुसार, जब रक्तासुर नामक राक्षस ने विंध्य क्षेत्र में आतंक मचाया था, तब देवी दुर्गा ने चंडी रूप धारण कर उसका वध किया। उसी स्थान पर अब देवी काली की प्रतिमा स्थित है, जिसका मुख आकाश की ओर खुला हुआ है। यह स्वरूप युद्ध की उस वीरता का प्रतीक है। यहां मंदिर के आसपास विचरण करने वाले लंगूर माता के विशेष दूत माने जाते हैं।

    देवी अष्टभुजा: श्रीकृष्ण की बहन और महासरस्वती का स्वरूप

    द्वापर युग की कथा अनुसार, जब कंस ने वासुदेव और देवकी की कन्या को मारने का प्रयास किया, तो वह कन्या उसके हाथ से छूटकर आकाश में उड़ गई और भविष्यवाणी की कि उसकी मृत्यु देवकी की आठवीं संतान के हाथों ही होगी। वही कन्या बाद में विंध्य पर्वत पर स्थापित हुई और आज अष्टभुजा देवी के नाम से जानी जाती हैं। उन्हें महासरस्वती का स्वरूप माना जाता है।

    देवी शारदा और आल्हा-ऊदल की गाथा

    विंध्य क्षेत्र के बुंदेलखंड भाग में स्थित है मैहर का प्रसिद्ध शारदा देवी मंदिर। यही वह स्थान है, जहां वीर आल्हा और ऊदल की वीरगाथाएं जन्म लेती हैं। मान्यता है कि देवी शारदा ने आल्हा को अमरता का वरदान दिया था। मैहर मंदिर में आज भी आल्हा की खड़ाऊं और टूटी तलवार श्रद्धा के प्रतीक के रूप में सुरक्षित रखी गई है।

    आधी रात की रहस्यमयी पूजा

    इस मंदिर से जुड़ी सबसे रहस्यमयी बात यह है कि जब मंदिर के कपाट रात को बंद हो जाते हैं, तो आधी रात को घंटियों की आवाजें आती हैं, अगरबत्ती की खुशबू फैलती है और तालाब से डुबकी की रहस्यमयी आवाजें सुनाई देती हैं। सुबह जब मंदिर के कपाट खुलते हैं तो माता को ताजे कमल के फूल चढ़े मिलते हैं, जो केवल उसी तालाब में पाए जाते हैं। ये सभी संकेत इस बात की ओर इशारा करते हैं कि देवी शारदा की पहली पूजा अब भी आल्हा करते हैं।

    लोकगाथाओं में अमर आल्हा

    बुंदेलखंड की लोकगाथाएं बताती हैं कि जब ऊदल वीरगति को प्राप्त हुए, तो आल्हा ने युद्ध से विराम ले लिया और अपनी तलवार देवी के मंदिर में गाड़ दी। कहा जाता है कि आल्हा को तब तक यह ज्ञात नहीं था कि उन्हें देवी से अमरत्व का वरदान प्राप्त है। आज भी मैहर मंदिर के चारों ओर आल्हा और ऊदल के स्मारक मौजूद हैं।

    शक्ति, भक्ति और रहस्य का संगम

    मैहर का शारदा देवी मंदिर देवी शक्ति का 52वां शक्तिपीठ माना जाता है। मान्यता है कि यहां मां पार्वती के गले का हार गिरा था, जिससे इसका नाम मैहर पड़ा। यहां की रहस्यमयी घटनाएं और दिव्य वातावरण श्रद्धालुओं को न सिर्फ आकर्षित करता है, बल्कि यह स्थान सदियों से आस्था और चमत्कार का केंद्र बना हुआ है।

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