नई दिल्लीः बराबरी की भाषा की मुहिम अब महज़ एक भाषा सुधार आंदोलन नहीं रह गई है, बल्कि यह हर उस पाठक का आईना बन गई है जो अब तक यह मानकर बैठा था कि शब्दों में क्या रखा है! लेकिन अब जब लोगों ने देखा कि सिर्फ शब्दों में नहीं, पूरी सोच में ‘पुरुष प्राथमिकता’ बसी हुई है, तब जाकर उन्हें एहसास हुआ कि यह सिर्फ शब्दों की लड़ाई नहीं, पहचान की लड़ाई है। इस मुहिम ने पाठकों, शिक्षकों, पत्रकारों और यहां तक कि कुछ पुराने ज़माने के संपादकों तक को यह सोचने पर मजबूर किया है कि जब हर पेशे के लिए शब्द का रूप सिर्फ पुरुष ही हो, तो महिलाएं वहां पहुंच भी जाएं तो क्या वे सिर्फ 'अतिथि' रहेंगी?
पिछले कुछ महीनों में 'बराबरी की भाषा' को जो समर्थन मिला है, वह उम्मीद से कहीं ज़्यादा रहा। हर हफ्ते एक नए शब्द पर सार्वजनिक चर्चा, फिर खुले मंच पर वोटिंग और आखिर में एक लोकतांत्रिक फैसला- इस पूरी प्रक्रिया ने भाषा को जनता की भागीदारी वाला सुपर एक्टिव प्रोजेक्ट बना दिया है। जिस तरह से ‘कलाकार’ से ‘कलाकारा’ बना या ‘विधायक’ के लिए लोगों ने ‘विधायिका’ को चुना, वह इस बात का सबूत है कि समाज अब सिर्फ ‘कुर्सियों’ पर नहीं, ‘शब्दों’ में भी बराबरी चाहता है।
इस हफ्ते का नया शब्द-कार्यकर्ता
अब इस हफ्ते हम पाठकों के सामने पेश कर रहे हैं एक और रोज़मर्रा का लेकिन अहम शब्द-कार्यकर्ता। यह शब्द हर उस व्यक्ति के लिए इस्तेमाल होता है जो किसी विचारधारा, संगठन, अभियान या संस्था के लिए ज़मीन पर काम करता है। पर सोचिए, किसी महिला को भी अब तक हमने 'कार्यकर्ता' कहकर ही बुलाया है या फिर जब विशेष रूप से जिक्र करना हुआ हो तो महिला कार्यकर्ता कहते रहे हैं। वैसे जब भी यह शब्द मुंह से निकलता है, ज़हन में सफेद कुर्ता पहने हुए, माथे पर शिकन लिए एक पुरुष की छवि उभरती है, जो या तो किसी आंदोलन का हिस्सा है या किसी राजनीतिक पार्टी का नारा लगा रहा है। महिला कार्यकर्ता? हां, कई हैं। लेकिन उन्हें हम क्या कहते हैं? 'महिला कार्यकर्ता'। यानी उस शब्द में महिला का होना एक ‘विशेषण’ है, मुख्य पहचान नहीं।
कितनी अजीब बात है ना कि महिला अगर काम करे तो भी 'कार्यकर्ता' शब्द उसका नहीं होता। उसे या तो ‘कार्यकर्ता’ के साथ एक लेबल चाहिए होता है ‘महिला’ या फिर हम उसे बस ‘सहयोगी’, ‘सेविका’ या फिर ‘कार्यकर्ता की पत्नी’ कहकर संतुष्ट हो जाते हैं। और जो समाज शब्दों में ही किसी को बराबरी नहीं दे सकता, वह असल ज़िंदगी में भला कब देगा? दरअसल, इस भाषाई अन्याय के पीछे वह गहराई से जमी हुई पितृसत्ता (Patriarchy) है, जो हर पेशे, हर भूमिका, हर मंच को मर्दों का इलाका मानती रही है। वही पितृसत्ता जिसने वर्षों तक कहा कि महिलाएं नेता नहीं बन सकतीं, वैज्ञानिक नहीं बन सकतीं, सैनिक नहीं बन सकतीं और अब कहती है कि अगर बन भी जाएं, तो नाम बदलने की क्या ज़रूरत है! पर ज़रूरत है। ज़रूरत इसलिए है क्योंकि भाषा पहचान बनाती है। जब कोई लड़की कहती है कि वह बड़ी होकर कार्यकर्ता बनेगी, तो वह यह भी चाहती है कि उसका काम, उसकी उपस्थिति और उसकी आवाज़ को एक ऐसा शब्द मिले जिसमें उसका भी अक्स झलके। कोई ऐसा शब्द जो उसके होने को ‘अपवाद’ न माने, बल्कि उसका स्वागत करे।
और इसलिए, इस हफ्ते हम आपके सामने रख रहे हैं यह सवाल-
‘कार्यकर्ता’ का स्त्रीलिंग क्या हो?
- कार्यकर्त्री
- कार्यकर्ती
- कार्यकर्तन
- कार्यकर्तिन
- या कुछ और
आपसे अनुरोध है कि आप सोचिए, महसूस कीजिए और वोट कीजिए। यदि कोई और विकल्प आपको बेहतर लगता है तो उसे लिखकर भेजिए। शब्दों से बदलाव की यह यात्रा चलती रहे, क्योंकि जब भाषा में आएगी बराबरी, तभी समाज में भी होगी सच्ची समानता।
पिछले कुछ महीनों में 'बराबरी की भाषा' को जो समर्थन मिला है, वह उम्मीद से कहीं ज़्यादा रहा। हर हफ्ते एक नए शब्द पर सार्वजनिक चर्चा, फिर खुले मंच पर वोटिंग और आखिर में एक लोकतांत्रिक फैसला- इस पूरी प्रक्रिया ने भाषा को जनता की भागीदारी वाला सुपर एक्टिव प्रोजेक्ट बना दिया है। जिस तरह से ‘कलाकार’ से ‘कलाकारा’ बना या ‘विधायक’ के लिए लोगों ने ‘विधायिका’ को चुना, वह इस बात का सबूत है कि समाज अब सिर्फ ‘कुर्सियों’ पर नहीं, ‘शब्दों’ में भी बराबरी चाहता है।
इस हफ्ते का नया शब्द-कार्यकर्ता
अब इस हफ्ते हम पाठकों के सामने पेश कर रहे हैं एक और रोज़मर्रा का लेकिन अहम शब्द-कार्यकर्ता। यह शब्द हर उस व्यक्ति के लिए इस्तेमाल होता है जो किसी विचारधारा, संगठन, अभियान या संस्था के लिए ज़मीन पर काम करता है। पर सोचिए, किसी महिला को भी अब तक हमने 'कार्यकर्ता' कहकर ही बुलाया है या फिर जब विशेष रूप से जिक्र करना हुआ हो तो महिला कार्यकर्ता कहते रहे हैं। वैसे जब भी यह शब्द मुंह से निकलता है, ज़हन में सफेद कुर्ता पहने हुए, माथे पर शिकन लिए एक पुरुष की छवि उभरती है, जो या तो किसी आंदोलन का हिस्सा है या किसी राजनीतिक पार्टी का नारा लगा रहा है। महिला कार्यकर्ता? हां, कई हैं। लेकिन उन्हें हम क्या कहते हैं? 'महिला कार्यकर्ता'। यानी उस शब्द में महिला का होना एक ‘विशेषण’ है, मुख्य पहचान नहीं।
कितनी अजीब बात है ना कि महिला अगर काम करे तो भी 'कार्यकर्ता' शब्द उसका नहीं होता। उसे या तो ‘कार्यकर्ता’ के साथ एक लेबल चाहिए होता है ‘महिला’ या फिर हम उसे बस ‘सहयोगी’, ‘सेविका’ या फिर ‘कार्यकर्ता की पत्नी’ कहकर संतुष्ट हो जाते हैं। और जो समाज शब्दों में ही किसी को बराबरी नहीं दे सकता, वह असल ज़िंदगी में भला कब देगा? दरअसल, इस भाषाई अन्याय के पीछे वह गहराई से जमी हुई पितृसत्ता (Patriarchy) है, जो हर पेशे, हर भूमिका, हर मंच को मर्दों का इलाका मानती रही है। वही पितृसत्ता जिसने वर्षों तक कहा कि महिलाएं नेता नहीं बन सकतीं, वैज्ञानिक नहीं बन सकतीं, सैनिक नहीं बन सकतीं और अब कहती है कि अगर बन भी जाएं, तो नाम बदलने की क्या ज़रूरत है! पर ज़रूरत है। ज़रूरत इसलिए है क्योंकि भाषा पहचान बनाती है। जब कोई लड़की कहती है कि वह बड़ी होकर कार्यकर्ता बनेगी, तो वह यह भी चाहती है कि उसका काम, उसकी उपस्थिति और उसकी आवाज़ को एक ऐसा शब्द मिले जिसमें उसका भी अक्स झलके। कोई ऐसा शब्द जो उसके होने को ‘अपवाद’ न माने, बल्कि उसका स्वागत करे।
और इसलिए, इस हफ्ते हम आपके सामने रख रहे हैं यह सवाल-
‘कार्यकर्ता’ का स्त्रीलिंग क्या हो?
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- कार्यकर्ती
- कार्यकर्तन
- कार्यकर्तिन
- या कुछ और
आपसे अनुरोध है कि आप सोचिए, महसूस कीजिए और वोट कीजिए। यदि कोई और विकल्प आपको बेहतर लगता है तो उसे लिखकर भेजिए। शब्दों से बदलाव की यह यात्रा चलती रहे, क्योंकि जब भाषा में आएगी बराबरी, तभी समाज में भी होगी सच्ची समानता।
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