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ताकि भरोसा बना रहे

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जस्टिस यशवंत वर्मा केस में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कुछ अहम सवाल उठाए हैं। जांच कमिटी के संवैधानिक आधार और अब तक रिपोर्ट दर्ज नहीं होने को लेकर उनकी चिंताओं पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है क्योंकि मामला न्यायपालिका की विश्वसनीयता और पारदर्शिता से जुड़ा हुआ है। कमिटी की वैधता: जस्टिस वर्मा के सरकारी आवास से बड़ी मात्रा में कथित तौर पर नकदी मिली थी। सुप्रीम कोर्ट ने घटना की जांच के लिए तीन जजों की आंतरिक कमिटी बनाई, जिसने आरोपों को विश्वसनीय माना है। लेकिन, उपराष्ट्रपति का यह कहना कि कमिटी की कोई संवैधानिक वैधता नहीं है - खुद इस जांच की विश्वसनीयता पर अंगुली उठा देना है। क्या कोई ऐसा तरीका निकाला जा सकता है, जिससे इन-हाउस इन्क्वॉयरी की प्रासंगिकता और संवैधानिक वैधता बनी रहे? वीरास्वामी केस: उपराष्ट्रपति चाहते हैं कि 1991 के सुप्रीम कोर्ट के वीरास्वामी फैसले पर पुनर्विचार किया जाए। इस फैसले के मुताबिक ही सिटिंग जज के खिलाफ FIR के लिए CJI की मंजूरी चाहिए होती है। यह व्यवस्था इसलिए है ताकि न्यायपालिका बिना किसी डर, दबाव या लालच के अपना कर्तव्य निभा सके। सरकार के पाले में गेंद: सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के सिटिंग जज को बर्खास्त या सस्पेंड करने का अधिकार भी सुप्रीम कोर्ट कलीजियम के पास नहीं है। कलीजियम काम वापस ले सकता है, ट्रांसफर की सिफारिश कर सकता है और जांच समिति बना सकता है। इस केस में जस्टिस वर्मा का ट्रांसफर किया गया और कमिटी की रिपोर्ट सरकार व राष्ट्रपति के पास भेजकर महाभियोग की सिफारिश कर दी गई है। यहां से अब गेंद सरकार और संसद के पाले में है। पहला मामला: महाभियोग ही एकमात्र तरीका है, जिससे सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के मौजूदा जजों को हटाया जा सकता है। लेकिन, आजाद भारत के इतिहास में आज तक ऐसा नहीं हुआ। इसके पहले, भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहे कलकत्ता हाई कोर्ट के न्यायाधीश सौमित्र सेन के खिलाफ महाभियोग चला था, लेकिन लोकसभा में वोटिंग से पहले ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया यानी वहां भी प्रक्रिया पूरी नहीं हो पाई थी। जटिलता कम हो: भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में जस्टिस वर्मा केस एक दुर्लभ मौका है। इसकी वजह से न्यायपालिका की गरिमा को ठेस न पहुंचे और जनता का भरोसा बना रहे, इसके लिए पूर्व CJI संजीव खन्ना ने मामले से जुड़ी जानकारियों को देश से साझा किया। साथ ही, उनकी पहल पर सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों ने अपनी संपत्ति का ब्यौरा भी सार्वजनिक किया। अब अगर यह मामला महाभियोग तक पहुंचता है, तो वहां भी एक लंबी प्रक्रिया चलेगी। विचार करने वाली बात यह है कि क्या न्यायपालिका की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखते हुए प्रक्रिया की जटिलता को कम किया जा सकता है?
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