बीजेपी को आज एक कॉर्पोरेट-हितैषी राजनीतिक पार्टी के रूप में देखा जाता है, और पार्टी के समर्थक और विरोधी, इस मामले में एक समान राय रखते हैं। समर्थकों का कहना है कि भारत के औद्योगीकरण के लिए यह ज़रूरी है और सरकार का काम व्यापार करना नहीं है। विरोधियों की का आरोप या आपत्ति है कि यह क्रोनी कैपिटलिज़्म के आगे बिक जाना है।
लेकिन बीजेपी का कार्पोरेट की तरफ झुकाव उसके शुरुआती दिनों में ऐसा नहीं था और ऐसा कोई सिद्धांत भी सामने नहीं है जो बता सके कि बीजेपी आज जो कर रही है, कल तक उसका विरोध क्यों करती थी। एक राजनीतिक दल को अपना रुख बदलने का पूरा अधिकार है, लेकिन यह पूछना भी अनुचित नहीं है उसने ऐसा क्यों किया। कांग्रेस पार्टी अपने अंदर और इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली जैसे अखबारों में तीखी बहस के बाद ही उदारीकरण की ओर बढ़ी थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को अपने आर्थिक सुधारों को पारित कराने में मुश्किल हुई थी और उन्हें अपने सांसदों और जनता के सामने उन्हें सही ठहराना पड़ा।
जनसंघ के रूप में अपने शुरुआती घोषणापत्रों में बीजेपी मुक्त बाज़ार की उन सभी नीतियों का विरोध किया था जिनकी वह आज समर्थक है। उसका कहना था कि 'अहस्तक्षेप (कारोबार में दखल न देना) केवल कृतयुग (जिसे सतयुग भी कहा जाता है, वह पहला ऐसा आदर्श युग था जब देवता स्वयं पृथ्वी पर शासन करते थे) का ही हिस्सा है' । इसलिए राज्य (सरकार) को अर्थव्यवस्था के कुछ क्षेत्रों में स्वामित्व और प्रबंधन की ज़िम्मेदारी स्वीकार करनी होगी। 1954 में, और फिर 1971 में, जनसंघ ने सभी भारतीय नागरिकों की अधिकतम आय 2,000 रुपये प्रति माह और न्यूनतम आय 100 रुपये प्रति माह तक सीमित करने का संकल्प लिया था और 20:1 का अनुपात बनाए रखा था।
संकल्प था कि वह इस अंतर को कम करने के लिए तब तक काम करता रहेगा जब तक यह अंतर 10:1 के अनुपात तक नहीं पहुंच जाता, जो आदर्श अंतर है और सभी भारतीयों की आय उनकी स्थिति के आधार पर इस सीमा के भीतर ही हो सकती है। इस सीमा से अधिक अर्जित अतिरिक्त आय राज्य द्वारा विकास आवश्यकताओं के लिए 'योगदान, कराधान, अनिवार्य ऋण और निवेश के माध्यम से' सरकार ले लेगी। पार्टी शहरों में आवासीय भवनों के आकार को भी सीमित करेगी और 1000 वर्ग गज से बड़े भूखंडों की अनुमति नहीं देगी।
इसने रक्षा और एयरोस्पेस को छोड़कर सभी उद्योगों के मशीनीकरण का विरोध किया क्योंकि वह कारखानों में मशीनों के बजाय मज़दूरों की मौजूदगी की पक्षधर थी। इसने कृषि में मशीनीकरण को पहले प्रोत्साहित करने के बाद उसका विरोध किया। 1954 में पार्टी ने कहा कि 'ट्रैक्टरों का इस्तेमाल केवल बंजर ज़मीन को जोतने के लिए किया जाएगा। सामान्य जुताई के लिए इनके इस्तेमाल को हतोत्साहित किया जाएगा।' उसका तर्क था कि इससे गौवंश (बैल और सांड) को वध से बचाया जा सकेगा।
सार्वजनिक क्षेत्र के मामले में पार्टी ने कहा कि वह एक ऐसी आर्थिक व्यवस्था विकसित करेगी जो सरकारी उद्यमों को ख़त्म नहीं करेगी, बल्कि निजी उद्यमों को उनका उचित स्थान देगी। उपभोक्ता वस्तुओं और विलासिता की वस्तुओं के आयात को हतोत्साहित किया जाएगा। स्वदेशी का अर्थ है स्थानीय उद्योगों को सब्सिडी देना और शुल्क से संरक्षण करना। हड़तालों और तालाबंदी सहित श्रमिक अधिकारों को हतोत्साहित किया जाएगा।
1957 में, पार्टी ने घोषणा की कि वह आर्थिक व्यवस्था में 'क्रांतिकारी परिवर्तन' लाएगी, जो 'भारतीय जीवन मूल्यों के अनुरूप' होंगे। हालांकि, इन पर विस्तार से कभी चर्चा नहीं की गई और न ही क्रांतिकारी परिवर्तन के इस विषय को भविष्य के किसी भी घोषणापत्र में फिर से उठाया गया। 1967 में, पार्टी ने कहा कि वह नियोजित अर्थव्यवस्था के विचार का समर्थन करती है, लेकिन योजना में बदलाव करेगी और 'क्षेत्रवार और परियोजनावार सूक्ष्म आर्थिक नियोजन की प्रणाली अपनाएगी।' इसने राज्य के हस्तक्षेप का समर्थन किया, लेकिन चुनिंदा जगहों पर। इसने निजी निवेश को प्रोत्साहित किया, लेकिन रक्षा क्षेत्र में बिल्कुल नहीं।
नागरिक स्वतंत्रता के प्रति पार्टी के दृष्टिकोण में भी ऐसा ही बदलाव आया है। इस यू-टर्न की भी कोई व्याख्या नहीं की गई। 1954 में जनसंघ ने कहा था कि वह संविधान के उस पहले संशोधन को निरस्त कर देगा जिसने 'उचित प्रतिबंध' लगाकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया था। इस संशोधन ने मूलतः अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को छीन लिया था क्योंकि उचित प्रतिबंधों की सूची बहुत लंबी और व्यापक थी। जनसंघ को लगचा था कि यह ऐसा मुद्दा नहीं है जिसे बिना चुनौती दिए छोड़ा जा सके। हालांकि, 1954 के बाद, पहला संशोधन निरस्त करने की मांग जनसंघ के घोषणापत्रों से गायब हो गई।
दिलचस्प बात यह है कि जनसंघ ने कहा था कि वह निवारक निरोध कानूनों को भी निरस्त करेगा, जो उसके अनुसार व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन थे। 1950 के दशक में यह वादा बार-बार किया गया था। हालांकि, 1967 तक उसने इस मांग को स्पष्ट करना शुरू कर दिया और कहा कि 'यह सुनिश्चित किया जाएगा कि पांचवे स्तंभ और विघटनकारी तत्वों को मौलिक अधिकारों का दुरुपयोग करने की अनुमति न दी जाए।' समय के साथ, संघ और बीजेपी निवारक निरोध के सबसे उत्साही समर्थक बन गए, और आज नागरिक समाज और राजनीतिक विरोधियों के लिए ज़मानत नहीं, बल्कि जेल उनकी घोषित नीति है।
सवाल यह है कि आखिर पार्टी इतनी तेजी से अहम मुद्दों पर यू-टर्न क्यों लेती चली गई और उसने इस बदलाव का स्पष्टीकरण क्यों नहीं दिया?
इसका उत्तर यह है कि जनसंघ या बीजेपी ने अपनी मूल स्थिति पर कोई विचार नहीं किया। जनसंघ के घोषणापत्र अक्सर कांग्रेस के शासन में भारत में जो कुछ चल रहा था, उसके जवाब में प्रतीत होते हैं। अगर नेहरू ने भूमि सुधार की पहल की, तो जनसंघ ने एक-दो पैराग्राफ जोड़ दिए कि उनका भूमि सुधार कैसे बेहतर होगा। जब इंदिरा गांधी ने भूमि सीमा की बात की, तो जनसंघ ने परिभाषित किया कि उनकी भूमि सीमा क्या होगी। एक नियोजित अर्थव्यवस्था ठीक थी, लेकिन जनसंघ इसे सूक्ष्म स्तर तक गहराई से योजनाबद्ध करेगा और यह परियोजना-केंद्रित भी होगा। मशीनीकरण अच्छा था, लेकिन बहुत ज़्यादा मशीनीकरण नहीं क्योंकि इससे बेरोज़गारी बढ़ती है, इसलिए इसे भारतीय आधुनिकीकरण ही कहना चाहिए। आदि आदि।
आखिरकार, जब 1991 में कांग्रेस ने अपना आर्थिक दृष्टिकोण बदला, तो बीजेपी भी उसके साथ बदल गई। और यही कारण है कि आज हम खुद को मौजूदा स्थिति में पाते हैं।
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