सोशल मीडिया पर ऐसी ख़बरों की भरमार है जिनमें कहा गया है कि बांग्लादेश के मैमनसिंह में मशहूर फ़िल्मकार सत्यजीत रे के सौ साल से भी ज्यादा पुराने एक पुश्तैनी घर को ढहाया जा रहा है. इस भवन की हालत जर्जर है.
इस बीच, भारत सरकार ने बांग्लादेश सरकार से इस घर को ढहाने के फ़ैसले पर पुनर्विचार करने की अपील की है. साथ ही भारत सरकार ने इस भवन के जीर्णोद्धार और पुनर्निर्माण में सहयोग का भी प्रस्ताव रखा है. भारत के विदेश मंत्रालय की वेबसाइट पर जारी एक बयान में यह बात कही गई है.
इसके अलावा पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी बांग्लादेश सरकार से इस भवन को बचाने का अनुरोध किया है. उन्होंने एक्स पर अपनी एक पोस्ट में यह अनुरोध किया है.
इस मुद्दे पर आलोचना बढ़ने के बीच बांग्लादेश शिशु अकादमी ने बुधवार को इमारत ढहाने का काम स्थगित कर दिया.
जिस घर की चर्चा हो रही है, वह मैमनसिंह शहर के हरिकिशोर रॉय रोड पर है. ये घर जिस ज़मीन पर है, साल 2008 में वह बांग्लादेश के महिला एवं बाल मामलों के मंत्रालय के तहत शिशु अकादमी के नाम पर आवंटित की गई थी.
लेकिन बाद में शिशु अकादमी ने इस घर को ख़तरनाक मानते हुए इसकी जगह एक नई इमारत बनाने का फ़ैसला किया.
लेकिन अब कई सवाल उठ रहे हैं. पूछा जा रहा है कि क्या जिस घर को ढहाए जाने के मुद्दे पर इतनी चर्चा हो रही है, वह वास्तव में सत्यजीत रे के पूर्वजों का ही है? यह कब से लावारिस हालत में है? इसका मालिकाना हक़ किसके पास था?
बांग्लादेश पुरातत्व विभाग के मैमनसिंह कार्यालय के एक अधिकारी के मुताबिक, विभाग का मानना है कि यह इमारत सत्यजीत रे के पूर्वजों की है. हालांकि, यह इमारत संरक्षित पुरातात्विक संरचनाओं की सूची में नहीं है.
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मैमनसिंह में पुरातत्व विभाग की फील्ड ऑफिसर सबीना यास्मीन ने बताया कि मैमनसिंह संभाग में पुरातात्विक संरचनाओं का सर्वेक्षण अभी जारी है. इसके पूरा होने के बाद ही किसी भी संरचना को संरक्षित सूची में शामिल किया जाता है.
इसीलिए विभाग ने मौखिक रूप से ये अनुरोध किया है कि फिलहाल इस घर को न ढहाया जाए. इसके अलावा शिशु अकादमी से इस घर को ढहाने की अनुमति समेत सभी कागजात भी मांगे गए हैं. इसके लिए लिखित आवेदन किया गया है.
इस बीच, संबंधित पक्षों के साथ एक बैठक में जिला उपायुक्त मुफीदुल आलम ने कहा है कि यह सत्यजीत रे के पूर्वजों का घर नहीं है. मैमनसिंह स्थित पुरातत्व विभाग के कार्यालय में एक शोधकर्ता और काजी नजरूल इस्लाम विश्वविद्यालय के नाट्य कला विभाग के अंशकालिक शिक्षक स्वप्न धर ने भी प्रशासन की तरह यही दावा किया है. उनका दावा है कि वह घर सत्यजीत रे के पूर्वजों का नहीं बल्कि समाजसेवी रणदा प्रसाद साहा का है.
धर का कहना है कि साल 2010 में बांग्लादेश सरकार और जर्मनी की साझा आर्थिक मदद से हुए एक शोध में इसकी जानकारी मिली थी.
उन्होंने कहा है कि हरिकिशोर रोड पर ही सत्यजीत रे के पूर्वजों का भी एक घर था. लेकिन उसे करीब दस साल पहले ही ढहा दिया गया था.
इतिहासकार मुंतशिर मामून के मुताबिक उस समय पूरे पूर्वी बंगाल में ऐसे घर थे. जिन लोगों को लेकर इतनी चर्चा हो रही है उनके पूर्वज देश के विभाजन से बहुत पहले ही यहां से चले गए थे. इनमें से कुछ घरों को तो संरक्षित किया गया है. लेकिन रखरखाव के अभाव में बाकी घर जर्जर हालत में हैं.
मामून ने बीबीसी बांग्ला से कहा, "सार्क में शामिल पड़ोसी देशों में भी ऐसे घरों और ढांचों का रखरखाव संभव नहीं हो सका है."
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मैमनसिंह स्थित पुरातत्व विभाग की फील्ड आफिसर सबीना यास्मीन ने बताया है कि वास्तुकला के लिहाज से यह घर महत्वपूर्ण है. इसी वजह से शिशु अकादमी से इसे ढहाने का काम रोकने औऱ इसे बचाने का मौखिक अनुरोध किया गया है. इसके साथ ही उससे लिखित तौर पर वो तमाम कागजात मांगे गए हैं जिनके आधार पर उसे ढहाने का फैसला लिया गया.
यास्मीन के मुताबिक, शिशु अकादमी ने बताया है कि उस घर को पहले ही खतरनाक और लावारिस घोषित किया जा चुका था. उन्होंने बताया कि अब तक उस घर के एक-तिहाई हिस्से को ढहाया जा चुका है.
यास्मीन ने बीबीसी बांग्ला से कहा, "ढांचे के लिहाज से यह घर सौ साल पुराना है. चूना और गारे से निर्मित इस घर की दीवारें 40 सेमी मोटी हैं. वास्तुकला के लिहाज इसका महत्व है."
उनका कहना था कि पुरातात्विक मामलों में विभिन्न फेसबुक पोस्ट के अलावा इतिहास की पुस्तकें, यूट्यूब पर उपलब्ध सामग्री और यहां तक कि लोककथाओं पर भी विचार किया जाता है.
यास्मीन कहती हैं, "दर्जी अब्दुल वहाब की पुस्तक 'हिस्टोरिकल मॉन्यूमेंट्स ऑफ मैमनसिंह रीजन' में इस बात का जिक्र है. हालांकि उसमें सीधे तौर पर ऐसा नहीं लिखा है. मैंने इसे ऑनलाइन, यूट्यूब और बांग्ला पीडिया पर भी देखा कि यह (घर) रॉय परिवार का है. मेरी दलील यह है कि ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि उस इमारत के सामने वाली सड़क का नाम हरिकिशोर रॉय रोड है."
वह कहती हैं, "उस पुस्तक में यह भी लिखा है कि वहां पहले से एक घर था जिसे ढहा दिया गया. वहीं रे परिवार का घर था. रे परिवार के एक घरों में कई संरचनाएं होती हैं. उसी वजह से मुझे लगता है कि यह रे परिवार के ही किसी पूर्वज का घर हो सकता है."
लेकिन उनका कहना था कि यह घर अभी पुरावशेषों या पुरातात्विक तौर पर संरक्षित धरोहरों की सूची में शामिल नहीं है. इसकी वजह यह है कि मैमनसिंह डिवीजन में सर्वेक्षण का काम अब भी जारी है.
यास्मीन कहती हैं, "यह एक लंबे समय तक चलने वाली प्रक्रिया है. हम सर्वेक्षण के आधार पर अपनी रिपोर्ट मुख्यालय में भेज देते हैं. उसके बाद चरणबद्ध तरीके से संरक्षित भवनों की सूची में शामिल किया जाता है. बीते वित्त वर्ष से मैमनसिंह में सर्वेक्षण शुरू हुआ है. दो उप-जिलों में काम पूरा हो गया है. 13 उप-जिलों में यह काम होगा. मैमनसिंह सदर उप-जिले में अब तक सर्वेक्षण नहीं हुआ है."
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बांग्लादेश के राष्ट्रीय ज्ञानकोश कहे जाने वाला बांग्ला पीडिया में रायचौधरी उपेंद्र किशोर से संबंधित अध्याय में लिखा गया है कि उपेंद्र किशोर का जन्म 10 मई 1863 को मैमनसिंह जिले के मसूआ गांव में हुआ था. इस समय वह किशोरगंज के तहत आता है.
पांच वर्ष की आयु में उनके पिता कालीनाथ रॉय उर्फ श्याम सुंदर मुंशी के करीबी रिश्तेदार मैमनसिंह के जमींदार हरिकिशोर चौधरी ने उपेंद्र किशोर को दत्तक पुत्र के रूप में गोद ले लिया था. उसके बाद उनका नया नाम उपेंद्र किशोर राय चौधरी रखा गया. जमींदार हरिकिशोर के संरक्षण में ही उनकी पढ़ाई-लिखाई शुरू हुई.
उपेंद्र किशोर रायचौधरी के चार पुत्र-पुत्रियों में मशहूर बाल साहित्यकार सुकुमार रे भी शामिल हैं.
बांग्ला पीडिया के मुताबिक, सुकुमार रे का जन्म कलकत्ता (अब कोलकाता) में हुआ था. लेकिन इसमें इस बात का जिक्र किया गया है कि उनका मूल निवास मैमनसिंह जिले के मसूआ में था.
सुकुमार रे के बेटे और मशहूर फिल्मकार सत्यजीत रे का जन्म भी कोलकाता में ही हुआ था. बांग्ला पीडिया में उनका पैतृक निवास स्थान भी मैमनसिंह जिले के मसूआ को ही बताया गया है.
इसके अलावा इतिहास की दूसरी किसी पुस्तक में उपेंद्र किशोर रायचौधरी या उनके परिवार के बारे में ऐसा कोई लेख नहीं मिला है.
इतिहासकारों का कहना है कि पूरे पूर्वी बंगाल में ऐसे घर थे. जिन लोगों की इतनी चर्चा हो रही है उनके पूर्वज देश के विभाजन से बहुत पहले से ही यहां से चले गए थे. रखरखाव के अभाव में ऐसे तमाम घर जर्जर हालत में हैं. कुछ घरों को संरक्षित करना संभव हो सकता है. मिसाल के तौर पर पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु के घर को संरक्षित किया गया था.
इतिहासकार मुंतशिर मामून कहते हैं, "हम भी चाहते हैं कि जो घर ठीक स्थिति में हैं उनको संरक्षित कर इस्तेमाल करने लायक बनाया जाए. लेकिन जो पूरी तरह ढह चुके हैं उनकी जगह तो नए घर बनेंगे ही. हमारे लिए इतने घरों का संरक्षण संभव नहीं है."
मामून इसकी वजह बताते हुए कहते हैं, "सत्यजीत रे की तरह मशहूर लोगों की तादाद कम से कम 60 या उससे ज्यादा ही होगी. संरक्षण के अभाव में उनमें से कइयों के घरों का नामोनिशान भी मिट चुका है. पड़ोसी देशों में भी ऐसी कई मशहूर हस्तियों के घरों का संरक्षण नहीं किया जा सका है."
ढाका विश्वविद्यालय में इतिहास के शिक्षक रहे मामून का मानना है कि अगर स्थानीय लोग और बांग्लादेश के संस्कृति मंत्रालय की दिलचस्पी हो और घर रहने लायक स्थिति में हो तो उसे संरक्षित किया जा सकता है.
मामून कहते हैं, "इतिहास के छात्र के तौर पर मैं हमेशा ऐसी यादों को संरक्षित करने के पक्ष में हूं. लेकिन ऐसा करना संभव नहीं है. सार्क देशों में भी ऐसे भवनों को बेहतर तरीके से संरक्षित करना संभव नहीं हो सका है. हम अफ़ग़ानिस्तान में बामियान की भी रक्षा नहीं कर सके. वो तो इतनी बड़ी ऐतिहासिक चीज़ थी."
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मैमनसिंह के पुरातात्विक शोधकर्ता स्वप्न धर का दावा है कि जिस इमारत को ढहाए जाने की इतनी चर्चा हो रही है वह सत्यजीत रे का पुश्तैनी घर नहीं है. यह समाजसेवी रणदा प्रसाद साहा का अस्थायी निवास है. धर दावा करते हैं कि उसी इलाके में सत्यजीत रे के पूर्वजों का बनाया घर भी था. लेकिन करीब दस साल पहले उसे ढहा दिया गया था.
उनका कहना है कि साल 2010 में बांग्लादेश सरकार और जर्मनी की साझा आर्थिक सहायता से हुए एक शोध और सर्वेक्षण से इसकी जानकारी मिली थी. इस कोष की रकम मैमनसिंह नगरपालिका को दी गई थी.
उस शोध का उद्देश्य मैमनसिंह में जर्मन गोथिक कला के इस्तेमाल के जरिए बनाए गए भवनों का पता लगाना था. शशि लॉज के अलावा आनंद मोहन कॉलेज के भवन भी इस कला के नमूने हैं.
इस शोध के तहत साल 2009 से 2010 यानी एक वर्ष तक जमीनी समीक्षा की गई थी.
फ्रांस के शहरी संरक्षण विशेषज्ञ रोमेन लार्चर के नेतृत्व में किए गए उक्त अध्ययन में मैमनसिंह के पुरातात्विक महत्व वाले 320 घरों की पहचान की गई. लेकिन जमीनी स्तर पर समीक्षा करने पर उनमें से 280 ही मिल सके थे. बाकियों को कई साल पहले ही ढहा दिया गया था.
स्वप्न धर कहते हैं, "रोमेन लार्चर ने इन 280 घरों को तीन वर्गों में बांटा था. मैं भी उनके साथ था. इनमें से पहले वर्ग में चिह्नित छह घरों में ऐतिहासिक शशि लॉज के अलावा अलेक्जेंडर कासल लकड़ी से बने थे. दूसरे वर्ग में 54 घरों को शामिल किया गया था. अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार पुरावशेषों की श्रेणी में होने के बावजूद उनको ढहाया नहीं जा सकता. मेरा घर भी इन 54 घरों में से एक था."
धर का दावा है कि शशिकांत महाराज और सूर्यकांत के परिवार ने रणदा प्रसाद साहा को वह जगह दान में दी थी.
वह बताते हैं, "रणदा प्रसाद साहा यहां कोयले का कारोबार करते थे. उनको वह जगह रहने के लिए दी गई थी. उन्होंने ही वहां यह घर बनवाया था. इस घर के निर्माण में लगी ईंटों का भी पुरातात्विक महत्व है. उन पर एसके यानी सूर्यकांत लिखा है. एसके अस्पताल का निर्माण भी उसी दौरान किया गया था. उन ईंटों से इस घर का निर्माण भी किया गया."
धर का दावा है कि इस शोध के दौरान उन्होंने रणदा प्रसाद साहा के एक वंशज आरती प्रसाद साहा से भी बातचीत की थी.
धर के मुताबिक, स्थानीय प्रशासन के साथ एक बैठक में उन्होंने इस घर को रणदा प्रसाद साहा के नाम से जोड़ने की अपील की है.
उनका कहना था, "यह घर आरपी साहा का है. इसे सत्यजीत रे के पूर्वजों का घर बताने का दुनिया भर में नकारात्मक असर पड़ा है. कहा जा रहा है कि यह सत्यजीत रे के पूर्वजों का घर है. लेकिन ऐसा नहीं है. सत्यजीत रे के पूर्वज हरिकिशोर ने घर के सामने स्थित सड़क बनवाई थी. इसलिए उसका नामकरण उनके नाम पर ही किया गया है. सत्यजीत रे का घर इस सड़क के आखिरी छोर पर है. रोमेन लार्चर के शोध में इस बात का साफ जिक्र है. यह बात काग़ज़ात में भी दर्ज है."
उन्होंने दावा कि साल 2010 में यह शोध रिपोर्ट एक अखबार में भी छपी थी."
शोधकर्ता ने बताया कि केदारनाथ मजूमदार की लिखित "मैमनसिंह का इतिहास और विवरण", ब्रिटिश लेखक और सिविल कलेक्टर रॉबर्ट ड्यू की लिखित "ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ मैमनसिंह" और दर्जी अब्दुल वहाब की लिखित "मैमनसिंह क्षेत्र के ऐतिहासिक स्मारक" जैसी पुस्तकों के विभिन्न लेखों में इस मुद्दे का जिक्र किया गया है
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इस बीच, भारत सरकार ने इस फ़ैसले पर हताशा जताते हुए उस घर के संरक्षण और पुनर्निर्माण में मदद का प्रस्ताव दिया है. विदेश मंत्रालय की ओर से जारी एक बयान में कहा गया है कि यह बेहद चिंता की बात है कि मशहूर लेखक और फिल्मकार सत्यजीत रे के दादा जी की ओर से बनाए गए इस घर को ढहाया जा रहा है. यह घर सत्यजीत रे के दादा और मशहूर साहित्यकार उपेंद्र किशोर रायचौधरी का था.
बयान में कहा गया है, "यह इमारत बांग्ला सांस्कृतिक पुनर्जागरण की प्रतीक है. इसकी ऐतिहासिक अहमियत को ध्यान में रखते हुए इसे ढहाने के फैसले पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए. साथ ही ढहाने की बजाय इसकी मरम्मत और पुनर्निर्माण के विकल्प तलाशने चाहिए ताकि इसे साहित्य के संग्रहालय और भारत व बांग्लादेश की साझा संस्कृति के प्रतीक के रूप में सुरक्षित बनाया जा सके. सरकार इसके लिए सहयोग देने को तैयार है."
विदेश मंत्रालय के बयान में इस बात का भी जिक्र किया गया था कि बांग्लादेश सरकार के मालिकाना हक वाले उस घर की हालत जर्जर है.
भारत सरकार ने बताया है कि वह इस घर को म्यूजियम बनाने में सहयोग करने की इच्छुक है.
इसके अलावा पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी बांग्लादेश सरकार के इस फैसले को बेहद दुखद बताते हुए उस घर को बचाने की अपील की है.
उन्होंने एक्स पर अपनी एक पोस्ट में कहा है कि मीडिया में आने वाली खबरों के मुताबिक, सत्यजीत रे के दादा और मशहूर लेखक-संपादक उपेंद्र किशोर रे चौधरी का घर ढहाया जा रहा है. यह बेहद निराशाजनक है.
ममता का कहना था, "रे परिवार बंगाली संस्कृति के संरक्षकों और वाहकों में से एक है. उपेंद्र किशोर बंगाली पुनर्जागरण के एक स्तंभ हैं. इसलिए मुझे लगता है कि यह घर बंगाल के सांस्कृतिक इतिहास से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है."
उन्होंने बांग्लादेश सरकार से भी इस घर को बचाने की अपील की है. ममता ने कहा, "मैं बांग्लादेश सरकार और वहाँ के सभी नेकदिल लोगों से इस ऐतिहासिक घर को बचाने की अपील करती हूं. भारत सरकार को इस मामले पर ध्यान देना चाहिए."
प्रशासन का क्या कहना है?उस घर को ढहाने का काम चार-पांच दिन पहले शुरू किया गया था. लेकिन मंगलवार को बांग्लादेश की मीडिया में इसकी खबरें छपने के बाद यह मामला सुर्खियों में आया. उसी आधार पर भारतीय विदेश मंत्रालय और ममता बनर्जी ने अपनी प्रतिक्रिया जताई थी. उसके बाद प्रशासनिक अधिकारियों ने रात को ही मौके का दौरा किया.
स्थानीय पत्रकारों ने बताया कि बुधवार को प्रशासन के निर्देश पर घर को ढहाने का काम स्थगित कर दिया गया है.
मैमनसिंह जिले के बाल मामलों के अधिकारी मेहदी जमान ने एक दिन पहले पत्रकारों को बताया था कि खतरनाक हालत में होने की वजह से साल 2010 से ही वह घर वीरान पड़ा था. शिशु अकादमी किराए के भवन में चल रही थी. आर्थिक नुकसान को ध्यान में रखते हुए ही उस घर को ढहाने का फैसला किया गया था.
इधर, इस मुद्दे पर विचार-विमर्श के लिए तमाम हितधारकों के साथ बुधवार शाम को जिला प्रशासन कार्यालय में एक बैठक आयोजित की गई.
बैठक के बाद जिला उपायुक्त मुफीदुल आलम ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में बताया कि वह घर सत्यजीत रे के पूर्वजों का नहीं है. सभी रिकॉर्ड में यह ज़मीन बांग्लादेश सरकार के नाम सूचीबद्ध है.
आलम का कहना था, "इस ज़मीन और घर के सत्यजीत रे के पूर्वजों के होने का दावा किया जा रहा है. हमने इससे संबंधित तमाम दस्तावेजों की जांच की है. उनमें कहीं भी सत्यजीत रे या उनके पूर्वजों के नाम नहीं हैं. यह बांग्लादेश सरकार के नाम दर्ज है."
आलम ने बताया कि साल 2008 में यह भूमि महिला एवं बाल मामलों के मंत्रालय के अंतर्गत बांग्लादेश शिशु अकादमी के नाम पर स्थानांतरित कर दी गई थी.
आलम बताते हैं, उचित प्रक्रिया के जरिए मंत्रालय के अनुमोदन के बाद ही उस घर को ढहाने का काम शुरू किया गया था. इस मामले में किसी नियम या प्रक्रिया का उल्लंघन नहीं किया गया है. समुचित प्रक्रिया का पालन करते हुए प्रशासन ने यह काम शुरू किया है.
उन्होंने बताया कि प्रशासन ने स्थानीय गणमान्य लोगों और शोधकर्ताओं से इस मुद्दे पर बात की है कि यह घर सत्यजीत रे का था या नहीं.
आलम कहते हैं, "इलाके के अस्सी साल से ज्यादा उम्र वाले लोगों और इस बारे में शोध करने वालों में इस बात पर आम राय है कि यह कभी सत्यजीत रे या उनके पूर्वजों का घर नहीं था. यह झूठी सूचना हमारे देश की छवि को धूमिल करने के लिए फैलाई जा रही है."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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