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साक्षात्कार : ख्वाहिशों को समाज की तंग परिभाषाओं में समेटने की कोशिश है 'डैला बैला: बदलेगी कहानी'

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हम सबके भीतर कुछ ऐसा होता है जो बेहद अपना, बेहद खास होता है, एक अनकही-सी पहचान, जो हमें औरों से अलग बनाती है। ये भावना अक्सर शब्दों में नहीं ढलती, लेकिन इसकी एक कोमल, चुपचाप सी आहट होती है। ज़रूरत बस उसे महसूस करने की होती है। फिल्म ‘डैला बैला: बदलेगी कहानी’ इसी आहट की खोज है। आशिमा वर्धन जैन का किरदार ‘डैला बैला’ उस संवेदनशीलता की मिसाल है, जो अपनी ही भीतरी आवाज को पहचानने और उसे दुनिया के सामने लाने की हिम्मत रखती है।

यह फिल्म बताती है कि किसी को ‘गलत’ कह देने या उस पर अपने विचार थोपने से कहीं बेहतर है उसकी भावना को समझने की कोशिश करना, उस संवेदना तक पहुंचने की कोशिश करना, जो अभी शब्द नहीं बन सकी है, लेकिन दिलों में मौजूद है। ‘डैला बैला: बदलेगी कहानी’ दरअसल एक पुकार है, सामाजिक मान्यताओं और दूसरों की अपेक्षाओं के बोझ को ढोने के बजाय अपनी आवाज़ उठाने की। ताकि वह गूंज हर किसी तक अपने-अपने तरीके से पहुंचे और बदलाव की शुरुआत बन जाए। ‘ (Udaipur Kiran) ’ के साथ हुई एक खास बातचीत में आशिमा वर्धन जैन ने इस फिल्म से जुड़े कई भावनात्मक पहलुओं को बेबाकी से शेयर किया।

Q. आपको क्यों लगा कि ये फिल्म मुझे करनी चाहिए

यह फिल्म सिर्फ एक कहानी नहीं, बल्कि एक भावनात्मक अनुभव है आत्म-खोज और पहचान की एक दिल को छू लेने वाली यात्रा। यह सिर्फ डैला बैला की नहीं, बल्कि उन तमाम लोगों की कहानी है, जिन्होंने कभी अपनी ख्वाहिशों को समाज की तंग परिभाषाओं में समेटने की कोशिश की है। मोहब्बतगंज की पृष्ठभूमि में रची गई यह कथा उस भारत की झलक दिखाती है जो एक अहम बदलाव की कगार पर खड़ा है। फिल्म की परतें गहराई से हमारे सामाजिक यथार्थ को उजागर करती हैं, कभी मासूमियत से, तो कभी सवालों से। डैला बैला के आत्मविश्वास से शुरू हुआ यह सफर हमें यह समझने पर मजबूर करता है कि सादगी में भी क्रांति छिपी होती है। यही वजह है कि यह कहानी व्यक्तिगत होते हुए भी सार्वभौमिक बन जाती है। एक छोटे शहर की लड़की के भीतर उफनते सपनों और सामाजिक सांचे के बीच टकराव की यह कहानी दर्शकों के दिल में देर तक गूंजती है।

Q. फिल्म में ‘सिंपल सिनेमा’ की बात की गई है, इसका मतलब क्या है?

यह वही सिनेमा है जो ज़िंदगी से आंख मिलाकर बात करता है। बिना शोर, बिना सजावट, बड़ी ही सहजता से। इसमें न कोई बनावटी किरदार हैं, न ही ओढ़ी हुई भावनाएं। हर दृश्य, हर संवाद इतना असल लगता है जैसे वो आपके ही घर, गली या मोहल्ले से उठाया गया हो। यह फिल्म रियल लाइफ का आईना है, जो जनरेशन गैप, मां-बाप की उम्मीदों और एक युवा मन की उलझनों को बड़े ही सच्चे और संवेदनशील अंदाज़ में पेश करती है। साहित्य की ज़ुबान में कहें तो यह एक संवादधर्मी कहानी है। एक ऐसी कथा जो सिर्फ कही नहीं जाती, बल्कि आपको बातचीत के लिए बुलाती है। यह फिल्म अपने दर्शकों को सिर्फ भावनाएं नहीं देती, बल्कि उन्हें सोचने, समझने और अपने अर्थ खुद गढ़ने की जगह भी देती है। डैला बैला की यात्रा दरअसल हमारे भीतर के उस हिस्से से संवाद करती है, जिसे हम अक्सर छिपा देते हैं, वो हिस्सा जो खुद से भी पूरी तरह जुड़ नहीं पाता। यह फिल्म उसी जीवन को सामने लाती है, जो भीतर ही भीतर कहीं दम साधे बैठा है।

Q. फिल्म में आपका किरदार कैसा है?

मैं डौलू का किरदार निभा रही हूं, एक ऐसी लड़की जो डॉक्टर बनने के लिए कोचिंग करती है, लेकिन उसका दिल सिर्फ किताबों तक सीमित नहीं है। उसे फैशन का शौक है, आउटफिट्स, नेल आर्ट जैसी चीजें भी उतनी ही लुभाती हैं। वो ज़िंदगी को अपने अंदाज़ में जीना चाहती है। उसके दोस्त और टीचर उसे प्यार से ‘डैला बैला’ बुलाते हैं, और यही नाम उसकी एक खास पहचान बन जाता है। फिल्म में वह शैंकी नाम के लड़के की तरफ आकर्षित होती है। लेकिन जैसे ही वह एक सपनीली दुनिया की ओर कदम बढ़ाती है, सबकुछ बिखर जाता है। वहीं से डैला बैला की यात्रा शुरू होती है, एक लड़की की जो अपनी महत्वाकांक्षाओं और क्षमताओं पर थोपे गए सामाजिक दायरे पर सवाल उठाने लगती है। सोचिए, कितनी तकलीफ होती होगी जब आप कुछ महसूस तो करते हैं, लेकिन उसे कह नहीं सकते। यही दर्द डैला बैला अपने भीतर लिए चलती है। उसके पिता को उसकी चिंता तो है, लेकिन वह उस तक पहुंचने की कोई राह नहीं खोज पाते। क्योंकि पीढ़ियों के बीच की खाई सिर्फ भावनाओं से नहीं, समझ और बदलाव से ही पाटी जा सकती है, वो भी एक हद तक। और जब कोई लड़की समाज की तयशुदा परंपराओं और रूढ़ियों से सवाल पूछती है, तो सबसे पहले सवाल उसी की नीयत पर उठने लगते हैं। डैला बैला इन्हीं टकरावों से लड़ती है, नायक नहीं, एक आम लड़की बनकर।

Q. फिल्म डायरेक्टर नीलेश जैन के साथ काम का अनुभव कैसा रहा? उनसे क्या सीखा?

नीलेश सर ने सिर्फ एक बात कही थी, जैसे हो, वैसे ही कैमरे के सामने आओ। और शायद यही उनकी सबसे बड़ी खूबी है। उन्होंने मुझे ये समझाया कि ज़िंदगी चाहे जितनी भी मुश्किल क्यों न हो, मेहनत करना कभी नहीं छोड़ना चाहिए। और सबसे ज़रूरी बात, हर दिन कुछ नया सीखने की कोशिश करनी चाहिए। यही सीख मेरे लिए सबसे कीमती है।

Q. आपने किन-किन सितारों के साथ काम किया है अब तक?

मैंने अब तक कई नामी ब्रांड्स के लिए विज्ञापन किए हैं और इस सफर के दौरान मुझे अक्षय कुमार, सुनील शेट्टी, मिथुन दा, मोहनलाल, चियान विक्रम और वेंकटेश सर जैसे दिग्गज कलाकारों के साथ काम करने का सौभाग्य मिला है। इन सभी के साथ काम करना मेरे लिए किसी पाठशाला जैसा अनुभव रहा — हर एक के पास सीखने के लिए कुछ न कुछ था। उनके साथ सेट पर बिताए गए पल मेरे लिए अनमोल हैं। लेकिन ‘डैला बैला: बदलेगी कहानी’ मेरे करियर की पहली फीचर फिल्म है, और इसका मतलब मेरे लिए सिर्फ एक डेब्यू नहीं, बल्कि एक बहुत बड़ा सपना पूरा होने जैसा है। इस फिल्म में मैंने सिर्फ अभिनय नहीं किया, बल्कि हर एक दृश्य में अपना दिल, अपनी मेहनत और अपनी सच्चाई डाल दी है। मैंने किरदार को सिर्फ निभाने की कोशिश नहीं की, बल्कि उसे जिया है, उसकी खुशी, उसकी उलझनें, उसका आत्म-संघर्ष, सब कुछ। यह फिल्म मेरे लिए सिर्फ एक पेशेवर मुकाम नहीं, बल्कि एक आत्मिक यात्रा भी रही है। ‘डैला बैला’ के ज़रिए मैंने अभिनय को और गहराई से समझा है, और कैमरे के सामने खुद को और नज़दीक से देखा है। मुझे उम्मीद है कि दर्शकों को मेरी ये मेहनत दिखाई देगी और वे इस कहानी से जुड़ाव महसूस करेंगे, क्योंकि ये कहानी सिर्फ डैला बैला की नहीं, बल्कि हम सभी की है, जो अपनी पहचान और सपनों के बीच रास्ता तलाशते हैं।

Q. क्या फिल्म कोई खास मैसेज देती है?

इस फिल्म में कई ऐसे संदेश छिपे हैं, जिन्हें हर दर्शक अपने अनुभव और नजरिए से महसूस करेगा, लेकिन एक बात जो मेरे दिल को खास तौर पर छू गई, वो ये है। अब लड़कियां किसी और के लिए नहीं, खुद के लिए सजती हैं। अपनी पसंद के लिए, अपनी खुशी के लिए, अपने आत्मविश्वास के लिए। ये एक बहुत ही सशक्त बात है, जो आज की पीढ़ी की सोच को बखूबी दर्शाती है। और एक और लाइन जो वाकई दिल में उतर जाती है, हमारे फैसले, हमारे होने चाहिए। ये सिर्फ एक डायलॉग नहीं है, बल्कि एक पूरी पीढ़ी की आवाज़ है, जो अपने हक, अपनी पहचान और अपनी आज़ादी के लिए खड़ी हो रही है।—————

(Udaipur Kiran) / लोकेश चंद्र दुबे

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