रियाद: आज से करीब 50 साल पहले साल 1979 में अल-जमा अल-सलाफिया अल-मुहतासिबा के कुछ सौ फॉलोवर्स ने करीब करीब मक्का पर कब्जा कर ही लिया था। उन्होंने करीब करीब सऊदी अरब की राजशाही को खत्म कर दिया था और इसके साथ ही सऊदी अरब का पतन भी हो जाता। यानि, इस्लाम के केन्द्र में ये विद्रोह किया गया था। और शायद यही वजह है कि सऊदी अरब ने एक बार फिर से पाकिस्तान के साथ सुरक्षा समझौता किया है, क्योंकि उस घटना के करीब 45 सालों से ज्यादा बीतने के बाद भी सऊदी अरब में उस घटना की गूंज बनी हुई है।
पाकिस्तान की राजनीतिक वैज्ञानिक आयशा सिद्दीका ने बताया है कि पिछले हफ्ते पाकिस्तान और सऊदी अरब के बीच किया गया पारस्परिक रक्षा समझौता कई मुद्दों पर केंद्रित है, जैसे ईरान को परमाणु हथियार हासिल करने या उनका इस्तेमाल करने से रोकना, क्षेत्र से अमेरिका वापसी के बाद सऊदी अरब की रक्षा करना और यमन जैसे देशों से सऊदी अरब के शाही परिवार की रक्षा करना। लेकिन इसके अलावा एक सरल सत्य यह भी है कि सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान अल-सऊद के मन में घूम रहा है कि सऊदी अरब जैसे मजहबी रूढ़िवादी देश में शाही परिवार की सुरक्षा सिर्फ सैनिकों के जरिए नहीं किया जा सकता है।
सऊदी अरब ने पाकिस्तान से क्यों किया समझौता?
सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच हुए समझौते को जानने के लिए मक्का विद्रोह को जानना जरूरी है। 1979 का सऊदी विद्रोह, जिसे मक्का सीज कहा जाता है, वो इस्लामी इतिहास की सबसे बड़ी और चौंकाने वाली घटनाओं में से एक था। 20 नवंबर 1979 को अल-जमा अल-सलाफिया अल-मुहतासिबा के सैकड़ों कट्टरपंथी फॉलोवर्स ने इस्लाम की सबसे पवित्र जगह मक्का की ग्रैंड मस्जिद (मस्जिद-ए-हरम) पर कब्जा कर लिया। विद्रोहियों का दावा था कि उनके साथी मुहम्मद अल-कहतानी "महदी" यानी इस्लाम के उद्धारकर्ता हैं। कई दिनों तक चले इस कब्जे की लड़ाई में विद्रोहियों ने मस्जिद के अंदर हथियार जमा कर रखे थे और सऊदी सुरक्षा बलों के खिलाफ जंग शुरू कर दी थी। शुरुआत में सऊदी सेना असहाय असहाय लग रही थी, लेकिन बाद में फ्रांसीसी स्पेशल फोर्स और पाकिस्तानी सैनिकों की मदद से गैस और भारी हथियारों का इस्तेमाल कर विद्रोहियों को हराया गया। लड़ाई में सैकड़ों लोग मारे गए। इस घटना ने सऊदी अरब की राजनीति, धर्म और सुरक्षा नीतियों पर गहरा असर डाला और धार्मिक पुलिस का प्रभाव और भी मजबूत कर दिया गया। मक्का पर कब्जे की इस घटना को जुहायमन विद्रोह भी कहा जाता है।
सऊदी शाही परिवार, खासकर प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान का मानना है कि 1979 के विद्रोह से साबित होता है कि मजहबी कट्टरपंथी, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन के विरोध में कभी भी सक्रिय हो सकते हैं। युवा सऊदी नागरिकों के बीच पश्चिमीकरण और आधुनिक संस्कृति को लेकर असंतोष बढ़ रहा है। 2025 में किए गए अध्ययन के मुताबिक, देश के युवा पश्चिमी सभ्यता के विरोधी हैं और प्रिंस मोहम्मद बिम सलमान के विजन-2030 से इत्तेफाक नहीं रखते हैं। उनमें मजहबी कट्टरपंथ कूट कूटकर भरा हुआ है। इसीलिए अंतरधार्मिक सहिष्णुता की उम्मीदें करना बेमानी थी। सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान अल-सऊद के प्रयासों के बावजूद, मजहबी और उग्रवादी गुट, जैसे शेख अस्सिम अल-हकीम और कुछ और संगठन, सांस्कृतिक उदारीकरण के खिलाफ दबाव बढ़ा रहे थे।
सऊदी प्रिंस के विजन-2030 का विरोध
मौलवी हलकों के लोग भी सऊदी क्राउन प्रिंस पर दबाव बढ़ा रहे हैं। सऊदी पर नजर रखने वाले जियो पॉलिटिकल एक्सपर्ट जेम्स डोर्सी ने लिखा है कि इंडोनेशियाई मूल के शेख असिम अल-हकीम, जिन्हें उनके युवा फॉलोवर्स "शेख ऑसम" के नाम से जानते हैं और जो ऐसे 'मौलवियों के समूह' में से एक हैं, जो प्रिंस सलमान की सांस्कृतिक नीतियों, खासकर लैंगिक भेदभाव के खिलाफ लिए गये फैसलों को चुनौती दे रहे हैं, सऊदी की एक बड़ी आबादी उनके प्रभाव में है। जबकि शेख बद्र अल-मशारी और सलाह अल-तालिब जैसे कम सतर्क मौलवी जेल में हैं, जबकि मुहम्मद अल-गामदी को मौलवियों के अपने विचारों की वकालत करने के अधिकार की वकालत करने के लिए फांसी का सामना करना पड़ रहा है।
दिप्रिंट में लिखते हुए जियो-पॉलिटिकल एक्सपर्ट प्रवीण स्वामी ने लिखा है कि 1982 से सऊदी अरब ने पाकिस्तान से सुरक्षा बल को मक्का की सुरक्षा के लिए बुलाए, जिन्हें दूसरी खालिद बिन वालिद आर्मर्ड ब्रिगेड कहा गया। इसमें तीन टैंक बटालियन, एक इन्फैंट्री बटालियन और एक एंटी-एयर डिफेंस बटालियन शामिल थी। ये बल सऊदी कानून के अधीन थे और सीधे राजशाही की कमान में काम करते थे। 1990 तक यह ब्रिगेड सऊदी सुरक्षा का हिस्सा बनी रही और गल्फ युद्ध के दौरान अस्थायी रूप से लौटाई गई। नया समझौता पाकिस्तान और सऊदी अरब के बीच सुरक्षा सहयोग को फिर से मजबूत कर सकता है, जिससे न सिर्फ यमन और सऊदी जिहादी विद्रोहियों, बल्कि देश के भीतर संभावित उग्रवादी और अंदरूनी खतरे भी कंट्रोल किया जा सके।
पाकिस्तान की राजनीतिक वैज्ञानिक आयशा सिद्दीका ने बताया है कि पिछले हफ्ते पाकिस्तान और सऊदी अरब के बीच किया गया पारस्परिक रक्षा समझौता कई मुद्दों पर केंद्रित है, जैसे ईरान को परमाणु हथियार हासिल करने या उनका इस्तेमाल करने से रोकना, क्षेत्र से अमेरिका वापसी के बाद सऊदी अरब की रक्षा करना और यमन जैसे देशों से सऊदी अरब के शाही परिवार की रक्षा करना। लेकिन इसके अलावा एक सरल सत्य यह भी है कि सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान अल-सऊद के मन में घूम रहा है कि सऊदी अरब जैसे मजहबी रूढ़िवादी देश में शाही परिवार की सुरक्षा सिर्फ सैनिकों के जरिए नहीं किया जा सकता है।
सऊदी अरब ने पाकिस्तान से क्यों किया समझौता?
सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच हुए समझौते को जानने के लिए मक्का विद्रोह को जानना जरूरी है। 1979 का सऊदी विद्रोह, जिसे मक्का सीज कहा जाता है, वो इस्लामी इतिहास की सबसे बड़ी और चौंकाने वाली घटनाओं में से एक था। 20 नवंबर 1979 को अल-जमा अल-सलाफिया अल-मुहतासिबा के सैकड़ों कट्टरपंथी फॉलोवर्स ने इस्लाम की सबसे पवित्र जगह मक्का की ग्रैंड मस्जिद (मस्जिद-ए-हरम) पर कब्जा कर लिया। विद्रोहियों का दावा था कि उनके साथी मुहम्मद अल-कहतानी "महदी" यानी इस्लाम के उद्धारकर्ता हैं। कई दिनों तक चले इस कब्जे की लड़ाई में विद्रोहियों ने मस्जिद के अंदर हथियार जमा कर रखे थे और सऊदी सुरक्षा बलों के खिलाफ जंग शुरू कर दी थी। शुरुआत में सऊदी सेना असहाय असहाय लग रही थी, लेकिन बाद में फ्रांसीसी स्पेशल फोर्स और पाकिस्तानी सैनिकों की मदद से गैस और भारी हथियारों का इस्तेमाल कर विद्रोहियों को हराया गया। लड़ाई में सैकड़ों लोग मारे गए। इस घटना ने सऊदी अरब की राजनीति, धर्म और सुरक्षा नीतियों पर गहरा असर डाला और धार्मिक पुलिस का प्रभाव और भी मजबूत कर दिया गया। मक्का पर कब्जे की इस घटना को जुहायमन विद्रोह भी कहा जाता है।
सऊदी शाही परिवार, खासकर प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान का मानना है कि 1979 के विद्रोह से साबित होता है कि मजहबी कट्टरपंथी, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन के विरोध में कभी भी सक्रिय हो सकते हैं। युवा सऊदी नागरिकों के बीच पश्चिमीकरण और आधुनिक संस्कृति को लेकर असंतोष बढ़ रहा है। 2025 में किए गए अध्ययन के मुताबिक, देश के युवा पश्चिमी सभ्यता के विरोधी हैं और प्रिंस मोहम्मद बिम सलमान के विजन-2030 से इत्तेफाक नहीं रखते हैं। उनमें मजहबी कट्टरपंथ कूट कूटकर भरा हुआ है। इसीलिए अंतरधार्मिक सहिष्णुता की उम्मीदें करना बेमानी थी। सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान अल-सऊद के प्रयासों के बावजूद, मजहबी और उग्रवादी गुट, जैसे शेख अस्सिम अल-हकीम और कुछ और संगठन, सांस्कृतिक उदारीकरण के खिलाफ दबाव बढ़ा रहे थे।
सऊदी प्रिंस के विजन-2030 का विरोध
मौलवी हलकों के लोग भी सऊदी क्राउन प्रिंस पर दबाव बढ़ा रहे हैं। सऊदी पर नजर रखने वाले जियो पॉलिटिकल एक्सपर्ट जेम्स डोर्सी ने लिखा है कि इंडोनेशियाई मूल के शेख असिम अल-हकीम, जिन्हें उनके युवा फॉलोवर्स "शेख ऑसम" के नाम से जानते हैं और जो ऐसे 'मौलवियों के समूह' में से एक हैं, जो प्रिंस सलमान की सांस्कृतिक नीतियों, खासकर लैंगिक भेदभाव के खिलाफ लिए गये फैसलों को चुनौती दे रहे हैं, सऊदी की एक बड़ी आबादी उनके प्रभाव में है। जबकि शेख बद्र अल-मशारी और सलाह अल-तालिब जैसे कम सतर्क मौलवी जेल में हैं, जबकि मुहम्मद अल-गामदी को मौलवियों के अपने विचारों की वकालत करने के अधिकार की वकालत करने के लिए फांसी का सामना करना पड़ रहा है।
दिप्रिंट में लिखते हुए जियो-पॉलिटिकल एक्सपर्ट प्रवीण स्वामी ने लिखा है कि 1982 से सऊदी अरब ने पाकिस्तान से सुरक्षा बल को मक्का की सुरक्षा के लिए बुलाए, जिन्हें दूसरी खालिद बिन वालिद आर्मर्ड ब्रिगेड कहा गया। इसमें तीन टैंक बटालियन, एक इन्फैंट्री बटालियन और एक एंटी-एयर डिफेंस बटालियन शामिल थी। ये बल सऊदी कानून के अधीन थे और सीधे राजशाही की कमान में काम करते थे। 1990 तक यह ब्रिगेड सऊदी सुरक्षा का हिस्सा बनी रही और गल्फ युद्ध के दौरान अस्थायी रूप से लौटाई गई। नया समझौता पाकिस्तान और सऊदी अरब के बीच सुरक्षा सहयोग को फिर से मजबूत कर सकता है, जिससे न सिर्फ यमन और सऊदी जिहादी विद्रोहियों, बल्कि देश के भीतर संभावित उग्रवादी और अंदरूनी खतरे भी कंट्रोल किया जा सके।
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