रेडियो जॉकी, होस्ट, कवि, गायक एक्टर जैसे कई रूपों को साकार करते हुए आयुष्मान खुराना के फिल्मी सफर को 13 साल पूरे हो गए हैं। इस नेशनल अवॉर्ड एक्टर ने अपने किरदारों के बलबूते पर इंडस्ट्री में स्टार सिस्टम को भेद कर अपनी एक नई राह बनाई। इन दिनों वे चर्चा में नई फिल्म 'थामा' से। उनसे एक खास बातचीत।
रेडियो जॉकी, होस्ट, कवि, गायक एक्टर जैसे कई रूपों को साकार करते हुए आपके फिल्मी सफर को 13 साल पूरे हो गए हैं, अपने सफर को कैसे देखते हैं?
-इस सफर के लिए मैं ऊपर वाले का शुक्र अदा करना चाहूंगा, क्योंकि टैलेंट बहुतों के पास होता है, लेकिन बहुत कम लोगों को मौका मिलता है। जब मुझे अपने क्राफ्ट पर काम करने का मौका मिला, तो इससे बड़ी बात क्या हो सकती है। मैं मल्टीटास्कर तो नहीं हूं। एक समय में एक ही काम कर पाता हूं, मगर इस फिल्म में भी मुझे एक गाना गाने का मौका मिला है। पहली बार इतना एक्शन करने का मौका मिला। 'ड्रीम गर्ल 2' मेरे करियर की सबसे बड़ी ओपनिंग थी। ये फिल्म भी अच्छा कर रही है, तो मैं खुश हूं।
आपके लिए सबसे ज्यादा मुश्किल दौर कौन-सा था?
-मुझे लगता है कि लगातार अच्छा काम करने की खलिश एक सफल और महत्वाकांक्षी व्यक्ति के अंदर बनी रहनी चाहिए। वही आग उसे बेहतर करने के लिए प्रेरित करती है। मुझे करियर में कोई कड़ा संघर्ष तो नहीं करना पड़ा, मगर मैं लगातार बेबी स्टेप लेकर ऊपर चढ़ा हूं। मैंने पहले जर्नलिज्म किया, फिर रेडियो, फिर टीवी, इसके बाद थिएटर और आखिरी में फिल्में। ये मेरे लिए यात्रा ही रही। मैं जहां भी गया, काम अच्छा गया।
मैं सही समय पर सही जगह पर था। चंडीगढ़ में स्टूडेंट थिएटर हमने शुरू किया
मैं सही समय पर सही जगह पर था। चंडीगढ़ में स्टूडेंट थिएटर हमने शुरू किया, तब तक वहां सिर्फ डिपार्टमेंट ऑफ इंडियन थिएटर के लोग ही रंगमंच किया करते थे। हमारे कॉलेज के प्रिंसिपल मिस्टर मरियम और प्रोफेसर विजय चौधरी ने ही हमें थिएटर करने के लिए इतने फंड दिए, क्योंकि उन्हें लगा कि इन लड़कों में आर्ट है और कुछ कर दिखाने का जज्बा। हमने नुक्कड़ नाटकों से शुरुआत की और हम ऑल इंडिया लेवल पर अवॉर्ड जीतने लगे। तब तक थिएटर में चंडीगढ़ से कोई जाता ही नहीं था। जब मैं रेडियो में आया, तो रेडियो उफान पर था। टीवी पर जब गया, तो टीवी का अच्छा दौर चल रहा था। जिस समय मैंने फिल्मों में प्रवेश किया, उस वक्त ऐसी भूमिकाएं और फिल्में बन रही थीं, जैसी मैं करना चाहता था। मेरी टाइमिंग बहुत सही थी और मैं मानता हूं कि टाइमिंग बहुत जरूरी होती है। टैलेंट चाहे उन्नीस हो, मगर टाइमिंग उन्नीस नहीं होनी चाहिए।
आप परिवार और प्रोफेशन के बीच संतुलन कैसे बनाए रखते हैं? ताहिरा किस तरह से आपको कॉम्प्लिमेंट करती हैं?
- ये तो बस हो रहा है। ऐसा लगता है, कोई करवा रहा है। जब तक मैं 34 साल का हुआ, तब तक कोई बैलेंस नहीं था। तब तक सिर्फ काम और काम में ही मग्न था। मुझे लगता है मर्दों में मच्योरिटी देर से आती है। मगर अब मैं बैलेंस करना सीख गया हूं। मेरी वाइफ मेरा सबसे बड़ा सपोर्ट सिस्टम है। अच्छी बात ये है कि हमारा सेन्स ऑफ ह्यूमर भी एक जैसा है। हमारे बीच कनेक्टिंग डॉट्स बने रहते हैं। मुझे लगता है कि दोस्ती बनी रहनी चाहिए।
आप एक नेशनल अवॉर्ड विनर एक्टर हैं, अवॉर्ड्स को कैसे देखते हैं?
-मुझे लगता है कि एक एक्टर को प्रोसेस से प्यार होना चाहिए। प मुंबई क्यों आए हैं? अभिनय के लिए न, जब आप अभिनय करते हैं, तो आपके अंदर कई इमोशंस जागते हैं, जो आप असल जिंदगी में कभी महसूस नहीं कर सकते। एक आर्टिस्ट के अंदर बहुत कुछ होता है। हर फिल्म में आप एक नई जिंदगी जीते हैं, कितनी खूबसूरत बात है, तो इससे बड़ा अवॉर्ड क्या होगा? बाकी तो यह दर्शकों पर निर्भर करता है कि वो फिल्म को कैसे स्वीकार करते हैं? लेकिन प्रोसेस के प्रति आपका लगाव कभी कम नहीं होना चाहिए।
आपको सबसे ज्यादा किस चीज से डर लगता है?
-सबसे ज्यादा डर इंसान से लगता है। इंसान ही एक ऐसा जानवर है, जो सबसे ज्यादा डरावना है, क्योंकि वो अनप्रेडिक्टेबल है। अच्छे इंसान होते हैं, उनके अंदर बुरे भी होते हैं। निदा फाजली साहब का एक शेर है, 'हर आदमी में होते हैं दस -बीस आदमी, जिसको भी देखना हो कई बार देखना' बाकी तो एक एक्टर के रूप में आपको निडर होना पड़ता है, अपनी चॉइस और किरदार के साथ। उन्हीं चुनावों के बलबूते पर हम आगे बढ़ते हैं और यही मेरी यात्रा रही है।
आयुष्मान आप उन नायकों में से जाने जाते हैं, जिन्होंने बिना किसी फ़िल्मी पृष्ठभूमि के इंडस्ट्री में स्टार सिस्टम को भेद कर अपनी जगह बनाई। आपका इस पर क्या कहना है?
-मैंने अपने करियर में हमेशा कहानी को आगे रखा है। सबसे पहले स्टोरी, स्क्रीनप्ले और फिर किरदार आता है। बाकी हीरो वही है, जिसका पर्स्पेक्टिव हो, अपना एक नजरिया हो। चाहे वो कैसा भी हो। अब तो ऐसा हो गया है कि हर किरदार अपने आप में एक हीरो हो गया है, क्योंकि हर चरित्र की अपनी सचाई होती है। मैं हमेशा पर्दे पर वही करने की कोशिश करता हूं, जो नहीं हुआ हो। जैसे हमारी इस फिल्म में बेताल की कहानी बताई गई है। मैं इसमें एक बेताल बना हूं।
एक समय था जब हॉरर जॉर्नर को प्रतिष्ठा की निगाह से नहीं देखा जाता था, मगर स्त्री, भेड़िया, मुंज्या, स्त्री 2 की के बाद हॉरर-कॉमिडी के रूप में हॉरर री-डिफाइन हुआ, क्या कहना चाहेंगे आप?
-ये सच है कि मैडॉक ने हॉरर को एक नया दर्जा दिया। यह जॉनर हमेशा से रहा और इसके दर्शक भी। मगर पहले भूतिया फिल्में या तो छिप-छिप कर देखी जाती थीं या फिर डर-डर कर। मगर फिर ये फिल्में फैमिली एंटरटेनर साबित हुई हैं। ये एक ऐसा विषय है, जो हमेशा आपको आकर्षित करेगा। आप इसमें कॉमिडी, कहानियां, वीएफएक्स जाई कई चीजें देख सकते हैं। यह दर्शकों को थिएटर तक लाने का अच्छा तरीका हो सकता है और हमारी फिल्म थामा इसी कॉमिडी-रिवर्स को इसे आगे ले जा रही है।
रश्मिका मंदाना के साथ काम करने का अनुभव कैसा रहा?
-मुझे लगता है जितनी सचाई से आप अपने क्राफ्ट पर काम और मेहनत करते हैं, वो पर्दे पर दिखता भी है और वही सच्चा एक्टर भी होता है। रश्मिका के साथ काम करके बहुत अच्छा लगा। उनकी एनर्जी बहुत पॉजिटिव और ऑरा बहुत अच्छा है। वो हमेशा स्माइल करती हैं, तो ऑडियंस को भी एक लगाव हो जाता है उनसे।
रेडियो जॉकी, होस्ट, कवि, गायक एक्टर जैसे कई रूपों को साकार करते हुए आपके फिल्मी सफर को 13 साल पूरे हो गए हैं, अपने सफर को कैसे देखते हैं?
-इस सफर के लिए मैं ऊपर वाले का शुक्र अदा करना चाहूंगा, क्योंकि टैलेंट बहुतों के पास होता है, लेकिन बहुत कम लोगों को मौका मिलता है। जब मुझे अपने क्राफ्ट पर काम करने का मौका मिला, तो इससे बड़ी बात क्या हो सकती है। मैं मल्टीटास्कर तो नहीं हूं। एक समय में एक ही काम कर पाता हूं, मगर इस फिल्म में भी मुझे एक गाना गाने का मौका मिला है। पहली बार इतना एक्शन करने का मौका मिला। 'ड्रीम गर्ल 2' मेरे करियर की सबसे बड़ी ओपनिंग थी। ये फिल्म भी अच्छा कर रही है, तो मैं खुश हूं।
आपके लिए सबसे ज्यादा मुश्किल दौर कौन-सा था?
-मुझे लगता है कि लगातार अच्छा काम करने की खलिश एक सफल और महत्वाकांक्षी व्यक्ति के अंदर बनी रहनी चाहिए। वही आग उसे बेहतर करने के लिए प्रेरित करती है। मुझे करियर में कोई कड़ा संघर्ष तो नहीं करना पड़ा, मगर मैं लगातार बेबी स्टेप लेकर ऊपर चढ़ा हूं। मैंने पहले जर्नलिज्म किया, फिर रेडियो, फिर टीवी, इसके बाद थिएटर और आखिरी में फिल्में। ये मेरे लिए यात्रा ही रही। मैं जहां भी गया, काम अच्छा गया।
मैं सही समय पर सही जगह पर था। चंडीगढ़ में स्टूडेंट थिएटर हमने शुरू किया
मैं सही समय पर सही जगह पर था। चंडीगढ़ में स्टूडेंट थिएटर हमने शुरू किया, तब तक वहां सिर्फ डिपार्टमेंट ऑफ इंडियन थिएटर के लोग ही रंगमंच किया करते थे। हमारे कॉलेज के प्रिंसिपल मिस्टर मरियम और प्रोफेसर विजय चौधरी ने ही हमें थिएटर करने के लिए इतने फंड दिए, क्योंकि उन्हें लगा कि इन लड़कों में आर्ट है और कुछ कर दिखाने का जज्बा। हमने नुक्कड़ नाटकों से शुरुआत की और हम ऑल इंडिया लेवल पर अवॉर्ड जीतने लगे। तब तक थिएटर में चंडीगढ़ से कोई जाता ही नहीं था। जब मैं रेडियो में आया, तो रेडियो उफान पर था। टीवी पर जब गया, तो टीवी का अच्छा दौर चल रहा था। जिस समय मैंने फिल्मों में प्रवेश किया, उस वक्त ऐसी भूमिकाएं और फिल्में बन रही थीं, जैसी मैं करना चाहता था। मेरी टाइमिंग बहुत सही थी और मैं मानता हूं कि टाइमिंग बहुत जरूरी होती है। टैलेंट चाहे उन्नीस हो, मगर टाइमिंग उन्नीस नहीं होनी चाहिए।
आप परिवार और प्रोफेशन के बीच संतुलन कैसे बनाए रखते हैं? ताहिरा किस तरह से आपको कॉम्प्लिमेंट करती हैं?
- ये तो बस हो रहा है। ऐसा लगता है, कोई करवा रहा है। जब तक मैं 34 साल का हुआ, तब तक कोई बैलेंस नहीं था। तब तक सिर्फ काम और काम में ही मग्न था। मुझे लगता है मर्दों में मच्योरिटी देर से आती है। मगर अब मैं बैलेंस करना सीख गया हूं। मेरी वाइफ मेरा सबसे बड़ा सपोर्ट सिस्टम है। अच्छी बात ये है कि हमारा सेन्स ऑफ ह्यूमर भी एक जैसा है। हमारे बीच कनेक्टिंग डॉट्स बने रहते हैं। मुझे लगता है कि दोस्ती बनी रहनी चाहिए।
आप एक नेशनल अवॉर्ड विनर एक्टर हैं, अवॉर्ड्स को कैसे देखते हैं?
-मुझे लगता है कि एक एक्टर को प्रोसेस से प्यार होना चाहिए। प मुंबई क्यों आए हैं? अभिनय के लिए न, जब आप अभिनय करते हैं, तो आपके अंदर कई इमोशंस जागते हैं, जो आप असल जिंदगी में कभी महसूस नहीं कर सकते। एक आर्टिस्ट के अंदर बहुत कुछ होता है। हर फिल्म में आप एक नई जिंदगी जीते हैं, कितनी खूबसूरत बात है, तो इससे बड़ा अवॉर्ड क्या होगा? बाकी तो यह दर्शकों पर निर्भर करता है कि वो फिल्म को कैसे स्वीकार करते हैं? लेकिन प्रोसेस के प्रति आपका लगाव कभी कम नहीं होना चाहिए।
आपको सबसे ज्यादा किस चीज से डर लगता है?
-सबसे ज्यादा डर इंसान से लगता है। इंसान ही एक ऐसा जानवर है, जो सबसे ज्यादा डरावना है, क्योंकि वो अनप्रेडिक्टेबल है। अच्छे इंसान होते हैं, उनके अंदर बुरे भी होते हैं। निदा फाजली साहब का एक शेर है, 'हर आदमी में होते हैं दस -बीस आदमी, जिसको भी देखना हो कई बार देखना' बाकी तो एक एक्टर के रूप में आपको निडर होना पड़ता है, अपनी चॉइस और किरदार के साथ। उन्हीं चुनावों के बलबूते पर हम आगे बढ़ते हैं और यही मेरी यात्रा रही है।
आयुष्मान आप उन नायकों में से जाने जाते हैं, जिन्होंने बिना किसी फ़िल्मी पृष्ठभूमि के इंडस्ट्री में स्टार सिस्टम को भेद कर अपनी जगह बनाई। आपका इस पर क्या कहना है?
-मैंने अपने करियर में हमेशा कहानी को आगे रखा है। सबसे पहले स्टोरी, स्क्रीनप्ले और फिर किरदार आता है। बाकी हीरो वही है, जिसका पर्स्पेक्टिव हो, अपना एक नजरिया हो। चाहे वो कैसा भी हो। अब तो ऐसा हो गया है कि हर किरदार अपने आप में एक हीरो हो गया है, क्योंकि हर चरित्र की अपनी सचाई होती है। मैं हमेशा पर्दे पर वही करने की कोशिश करता हूं, जो नहीं हुआ हो। जैसे हमारी इस फिल्म में बेताल की कहानी बताई गई है। मैं इसमें एक बेताल बना हूं।
एक समय था जब हॉरर जॉर्नर को प्रतिष्ठा की निगाह से नहीं देखा जाता था, मगर स्त्री, भेड़िया, मुंज्या, स्त्री 2 की के बाद हॉरर-कॉमिडी के रूप में हॉरर री-डिफाइन हुआ, क्या कहना चाहेंगे आप?
-ये सच है कि मैडॉक ने हॉरर को एक नया दर्जा दिया। यह जॉनर हमेशा से रहा और इसके दर्शक भी। मगर पहले भूतिया फिल्में या तो छिप-छिप कर देखी जाती थीं या फिर डर-डर कर। मगर फिर ये फिल्में फैमिली एंटरटेनर साबित हुई हैं। ये एक ऐसा विषय है, जो हमेशा आपको आकर्षित करेगा। आप इसमें कॉमिडी, कहानियां, वीएफएक्स जाई कई चीजें देख सकते हैं। यह दर्शकों को थिएटर तक लाने का अच्छा तरीका हो सकता है और हमारी फिल्म थामा इसी कॉमिडी-रिवर्स को इसे आगे ले जा रही है।
रश्मिका मंदाना के साथ काम करने का अनुभव कैसा रहा?
-मुझे लगता है जितनी सचाई से आप अपने क्राफ्ट पर काम और मेहनत करते हैं, वो पर्दे पर दिखता भी है और वही सच्चा एक्टर भी होता है। रश्मिका के साथ काम करके बहुत अच्छा लगा। उनकी एनर्जी बहुत पॉजिटिव और ऑरा बहुत अच्छा है। वो हमेशा स्माइल करती हैं, तो ऑडियंस को भी एक लगाव हो जाता है उनसे।
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