हिमालय के ऊंचे चांगथांग पठार पर, गहरे नीले आसमान में तारे साफ़ चमक रहे हैं.
पत्थरों की बाड़ से बने एक डेरे में सैकड़ों पश्मीना बकरियों और भेड़ों का समूह एक-दूसरे से सटकर बिल्कुल शांत लेटे हैं. यहां कोई हलचल नहीं है. तेज़ हवा के शोर में उनकी सांसों की आवाज़ भी दब जा रही है.
पीछे चरवाहे का सफ़ेद तंबू सौर ऊर्जा से जल रही लाइट में चमक रहा है. तापमान शून्य से कुछ डिग्री नीचे है.
कई परतों के कपड़े पहने हुए त्सेरिंग अपने तंबू से बाहर निकलते हुए ‘जूले’ कहकर हमारा स्वागत करते हैं.
वो शांत और स्थिर हैं लेकिन हमारे लिए यहां सांस लेना थोड़ा मुश्किल है. हमारे चेहरे का जितना हिस्सा खुला है, ठंडी तेज़ हवा उस पर चुभ रही है.
जैसे ही हम उन्हें बताते हैं कि हम पत्रकार हैं और लद्दाख में प्रस्तावित विशाल सोलर प्लांट को लेकर बात करना चाहते हैं, वो थोड़ा खीजते हैं.
पहले स्थानीय लद्दाखी भाषा और फिर टूटी-फूटी हिंदी में उन्होंने जो कहा उसका मतलब था- “हम सोलर प्लांट को लेकर कोई बात नहीं करेंगे, अगर हम कुछ बोलेंगे तो बहुत परेशानी होगी.”
लेकिन वो अगली सुबह इस शर्त पर हमें अपने गांव में आने की अनुमति दे देते हैं कि हम इस प्रस्तावित सोलर प्लांट को लेकर कोई चर्चा नहीं करेंगे.
लेह मनाली हाईवे पर स्थित एक छोटी सी बस्ती डेबरिंग से आगे और हाइवे से लगभग दस किलोमीटर दूर बर्फ़ से ढकी चोटियों की तलहटी में बसे इस समद राकचान गांव में चंगपा चरवाहों के कई दर्जन डेरे हैं.
समुद्र तल से साढ़े चार हज़ार मीटर से अधिक ऊंचाई पर ये इलाक़ा दुनिया की सबसे मुलायम, महंगी और मज़बूत पश्मीना ऊन पैदा करने वाली चांगथांगी बकरियों का घर है. घुमंतू चंगपा चरवाहे यहां गर्मियां बिताते हैं.
सुबह छह बजे जब हम पहुंचे, चरवाहों के तंबुओं से धुआं उठ रहा था. कुछ बाड़े से बकरियों और भेड़ों को बाहर निकाल रहे थे.
दर्जन भर चरवाहों का समूह इस बात को लेकर बहस कर रहा था कि अब किस पहाड़ी पर जाना है.
चंगपा चरवाहे घुमंतू होते हैं और चांगथांग के विशाल पठार पर जहां-जहां उन्हें घास मिलती है वो अपने जानवर लेकर पहुंच जाते हैं.
इस समूह के प्रमुख ने एक बार फिर हमसे सोलर प्लांट को लेकर किसी बातचीत से मना कर दिया..
कैमरे पर किसी ने खुलकर बात नहीं की लेकिन आपसी बातचीत में लगभग हर चरवाहे ने ये डर ज़ाहिर किया कि यदि लेह-मनाली हाइवे पर मोरे प्लेंस में प्रस्तावित विशाल सोलर पार्क बनता है तो उनके लिए जानवर चराना मुश्किल हो जाएगा.
अपना नाम न ज़ाहिर करने की शर्त पर 600 से अधिक बकरियां और भेड़ें पालने वाले क़रीब 60 साल के एक चरवाहे ने चिंताजनक लहज़े में कहा, “हम क्या करेंगे, भेड़-बकरियां बेच देंगे, लेकिन उसके बाद क्या करेंगे?”
प्रस्तावित सोलर प्रोजेक्टकेंद्र शासित प्रदेश लद्दाख की प्रशासनिक राजधानी लेह से क़रीब 175 किलोमीटर दूर लेह-मनाली हाईवे पर पांग और डेबरिंग नाम की दर्जन भर घरों की बस्तियों के बीच पड़ने वाले मोरे प्लेंस में 48 हज़ार एकड़ ज़मीन पर 11 गीगावॉट क्षमता का विशाल सोलर प्रोजेक्ट प्रस्तावित है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त 2020 को लाल किले से दिए भाषण में लद्दाख में मेगा सोलर पार्क बनाने की घोषणा की थी.
ये मेगा सोलर प्रोजेक्ट कब तक पूरा होगा इसे लेकर फिलहाल अधिकारिक जानकारी नहीं है.
संसद में अगस्त 2024 में दिए एक जवाब में भारत सरकार के नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय ने बताया था कि अभी मिट्टी की जांच और विस्तृत प्रोजेक्ट रिपोर्ट यानी डीपीआर बनाने का काम जारी है.
केंद्रीय कैबिनेट ने अक्तूबर 2023 में ग्रीन इनर्जी कॉरिडोर के तहत ट्रांसमिशन लाइन बनाने को लेकर फ़ैसला लिया था और इसे 2029-30 तक पूरा करने का लक्ष्य रखा था.
पहले यहां 13 गीगवॉट का सोलर और विंड पॉवर (पवन ऊर्जा ) प्रोजेक्ट आना था. लेकिन शोध के बाद पता चला कि यहां विंड एनर्जी प्रोजेक्ट के लिए संभावनाएं कम हैं.
लद्दाख के बिजली विभाग के चीफ़ इंजीनियर त्सेवांग पालजोर कहते हैं, “अब यहां 11 गीगावॉट का सोलर प्रोजेक्ट प्रस्तावित है जिसके लिए ज़मीन को लेकर लद्दाख ऑटोनोमस हिल डेवलवमेंट काउंसिल (एलएएचडीसी) और सोलर इनर्जी कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया (एसईसीआई) के बीच 48 हज़ार एकड़ ज़मीन के लिए समझौता हुआ है.”
ज़मीन को लेकर हुए इस समझौते को लेकर विस्तृत जानकारी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं है.
हालांकि, लद्दाख प्रशासन के मुख्य सचिव पवन कोटवाल कहते हैं, “इस समझौते के तहत सोलर पार्क से जितनी भी बिजली मिलेगी उसमें प्रति यूनिट पांच पैसे की दर से एलएएचडीसी को भुगतान किया जाएगा. इस पैसे का इस्तेमाल लेह डिस्ट्रिक्ट के विकास के लिए होगा क्योंकि ये प्रोजेक्ट लेह डिस्ट्रिक्ट के इलाक़े में ही आ रहा है.”
प्रोजेक्ट के सामने चुनौतियांभारत 127 गीगावॉट से अधिक की क्षमता के साथ इस समय दुनिया में सौर ऊर्जा उत्पादन के मामले में तीसरे नंबर पर है.
भारत ने साल 2030 तक अपनी सौर ऊर्जा क्षमता को दोगुना से अधिक बढ़ाकर 280 गीगावॉट तक करने का इरादा ज़ाहिर किया है.
लद्दाख में बनने वाला मेगा सोलर प्रोजेक्ट इस लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में अहम क़दम है.
स्थानीय चरवाहों की चिंताओं के अलावा इस सोलर प्रोजेक्ट के सामने सबसी बड़ी चुनौती यहां पैदा होने वाली बिजली को मुख्य भाग यानी भारत के मैदानी इलाक़ों तक पहुंचाने की है.
इस सोलर पार्क से पैदा होने वाली बिजली को मुख्य भाग तक लाने के लिए लद्दाख में लेह-मनाली हाइवे पर स्थित पांग से लेकर हरियाणा के कैथल तक 713 किलोमीटर लंबी ट्रांसमिशन लाइन बिछाई जानी है. इसे ग्रीन इनर्जी कॉरिडोर नाम दिया गया है.
ये ट्रांसमिशन लाइन 20773 करोड़ रुपए की लागत से बननी है और इसका 40 प्रतिशत ख़र्च केंद्र सरकार उठाएगी.
पावरग्रिड कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया (पीजीसीआईएल) इस ट्रांसमिशन लाइन को बिछाने का काम करेगी.
यहां से एचवीडीसी (हाई वॉल्टेज डायरेक्ट करंट) लाइन बिछाना प्रस्तावित था. इसके लिए ग्लोबल टेंडर निकाला गया था और एक बड़ी विदेशी कंपनी ने टेंडर भरा था. लेकिन ये टेंडर पास नहीं हो सका.
हालांकि, अभी तक दोबारा इसका टेंडर नहीं निकला है. सरकारी दस्तावेज़ों के मुताबिक़ इस लाइन को बिछाने का काम साल 2029-30 तक पूरा किया जाना है.
बिजली विभाग के चीफ़ इंजीनियर त्सेवांग पालजोर और लद्दाख प्रशासन के मुख्य सचिव पवन कोटवाल मानते हैं कि प्रोजेक्ट के सामने सबसे बड़ी चुनौती ये ट्रांसमिशन लाइन बिछना ही है.
इसके अलावा, स्थानीय चरवाहों की चिंताओं के मद्देनज़र पांग में एक पायलट सोलर प्रोजेक्ट भी शुरू किया गया है जिसके तहत ऊंचाई पर सोलर पैनल लगाए जा रहे हैं ताक़ि जानवर उनके नीचे से चर सकें. इससे भी प्रोजेक्ट का ख़र्च बढ़ जाएगा.
पवन कोटवाल कहते हैं, “इस बड़े पैमाने पर बनने वाले प्रोजेक्ट में अगर सोलर पैनल की ऊंचाई बढ़ाई जाएगी तो निश्चित तौर पर ख़र्च बढ़ेगा. ये बढ़ा हुआ ख़र्च भी एक चुनौती हो सकती है.”
क्या पश्मीना के लिए ख़तरा होगा प्रोजेक्ट?समद राकचान में चरवाहे खुलकर कैमरे पर बात नहीं करते लेकिन उनकी चिंताएं साफ़ नज़र आती हैं.
अपनी भेड़ों को पहाड़ की तरफ़ हांक रहा एक युवा चरवाहा कहता है, “हम सदियों से यही काम करते रहे हैं, इसके अलावा हमें कुछ आता भी नहीं है. यदि हमें ये इलाक़ा छोड़ना पड़ा तो हम कहां जाएंगे.”
यहां कई तिब्बती प्रवासी चरवाहे भी हैं. एक तिब्बती मूल का युवा चरवाहा कहता है, “जो यहां के लोग हैं उनकी सरकार मदद करेगी, लेकिन हमारी चिंता है कि हम कहां जाएंगे?”
यहां से क़रीब बीस किलोमीटर दूर खारनाक घाटी में भी चरवाहे इस प्रोजेक्ट को लेकर आशंकित नज़र आते हैं.
छह सौ से अधिक बकरियां और भेड़ें पालने वाले त्सेरिंग स्तोबदान प्रस्तावित सोलर पार्क को लेकर बेहद चिंतिंत है.
वो जिस डेरे में रहते हैं वहां उन जैसे क़रीब बीस चरवाहें हैं. यहां पत्थर से बनाए गए कई पक्के घर भी हैं.
यहां बाक़ी चरवाहों की चिंता भी यही है. एक हज़ार से अधिक जानवर पालने वाले त्सेरिंग आंगचुक कहते हैं, “हमारी ज़िंदगी घास के इन मैदानों पर ही निर्भर है.”
समद राकचान और खारनाक की पश्मीना बकरियों से पैदा होने वाली बेहद ख़ास पश्मीना ऊन एक जीआई (जियोग्राफ़िकल इंडिकेशन) उत्पाद है.
स्थानीय लोगों के दावे पर यक़ीन करें तो लद्दाख में क़रीब ढाई लाख पश्मीना बकरियां है जो सालाना पचास टन के आसपास ऊन पैदा करती हैं.
त्सोरिंग आंगचुक के मुताबिक़, कच्ची पश्मीना ऊन का भाव आमतौर पर चार-साढ़े चार हज़ार रुपए किलो रहता है और एक बकरी से औसतन आधा किलो पश्मीना निकलती है.
हालांकि जब इस कच्ची पश्मीना ऊन से कपड़े (आमतौर पर शॉल और मफ़लर) बनते हैं तो बाज़ार में उनका भाव काफी ऊंचा पहुंच जाता है.
लेह बाज़ार में एक सामान्य पश्मीना मफ़लर या शाल की क़ीमत चार हज़ार रुपए से अधिक है. अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में ये दाम और भी अधिक होते हैं.
लूम्स ऑफ़ लद्दाख़ की प्रोडक्ट मैनेजर पद्मा दाशी जो ख़ुद खारनाक के एक चरवाहा परिवार से हैं.
वे कहती हैं, “हमारी ज़िंदग़ी हमारे जानवरों के इर्द-गिर्द घूमती हैं. चांगथांग एक ऊंचा ठंडा इलाक़ा है, यहां वैसे भी जीवन बहुत मुश्किल है."
BBC पश्मीना ऊन और इसके इर्द-गिर्द की अर्थव्यवस्था लद्दाख में एक सफल पारंपरिक उद्योग है. चरवाहों से लेकर आगे पश्मीना की अलग-अलग प्रक्रिया में हज़ारों परिवार इससे जुड़े हैं.
पद्मा कहती हैं, “पश्मीना ने लद्दाख को पहचान दी है. ये बकरियां सिर्फ़ लद्दाख के इन ऊंचे ठंडे इलाक़ों में होती हैं. सिर्फ़ चरवाहे ही नहीं कारोबारी भी इससे जुड़े हैं. इन्हें बचाना बहुत ज़रूरी है.”
ज़मीन पर अधिकार का सवालएलएएचडीसी ने 48 हज़ार एकड़ ज़मीन सोलर प्रोजेक्ट के लिए एसईसीआई को दी है.
यहां रहने वाले चरवाहों का ज़मीन पर क़ानूनी अधिकार नहीं हैं ना ही उनके पास ज़मीन को लेकर कोई दस्तावेज़ हैं. वो पारंपरिक रूप से यहां अपने जानवर चराते रहे हैं.
ये सार्वजनिक भूमि है जो एलएएचडीसी के अधिकार क्षेत्र में है. क़ानून के तहत इस ज़मीन के सरकारी अधिग्रहण के लिए एलएएचडीसी की मंज़ूरी ज़रूरी है और इस मामले में ये मंज़ूरी एलएएचडीसी ने दे दी है.
ऐसे में कई चरवाहों को डर है कि उन्हें बिना किसी मुआवज़े के भी हटाया जा सकता है.
खारनाक के चरवाहे त्सेरिंग आंगचुक कहते हैं, “सोलर प्रोजेक्ट एक सरकारी प्रोजेक्ट है और अगर सरकार चाहेगी तो प्रोजेक्ट बनाएगी ही. हमने अपनी मांगे सरकार के सामने रखी हैं.
आंगचुक का कहना है, "अगर सरकार हमारी सभी मांगे मान लेगी तो हमें दिक़्क़त नहीं है. यदि हमें बिना मुआवज़े के इन पारंपरिक ज़मीनों से हटाया गया तो हम विरोध करेंगे, इस प्रोजेक्ट को नहीं लगने देंगे.”
हालांकि त्सेरिंग आंगचुक और उनके जैसे बाक़ी चरवाहों के पास इन ज़मीनों को लेकर कोई लैंड डीड नहीं है या ना ही कोई क़ानूनी दस्तावेज़ या दावा करने का अधिकार.
अधिकतर चांगपा चरवाहे मौसम के हिसाब से पलायन के पारंपरिक रास्तों पर चलते हैं.
त्सेरिंग स्तोबदान कहते हैं, “हम सरकार से पूछना चाहते हैं कि अगर वो हमें इन ज़मीनों से हटाएगी तो कहां ज़मीन देगी?”
आक्रोशित लहज़े में वो कहते हैं, “हम सदियों से बकरियां-भेड़ें चरा रहे हैं, पश्मीना बेचकर रोज़ी-रोटी करते हैं, बच्चों के स्कूल की फ़ीस भरते हैं. अगर घास के ये मैदान नहीं रहेंगे तो हम कैसे जी पाएंगे?”
लद्दाख प्रशासन का तर्कलद्दाख प्रशासन का कहना है कि स्थानीय चरवाहों की चिंताओं का समाधान किया जा रहा है.
ऊर्जा सचिव पीटी रूद्र गौड़ कहते हैं, “प्रशासन ने चरवाहों की चिंताओं का संज्ञान लिया है. इसलिए ही पायलट प्रोजेक्ट शुरू किया गया है ताक़ि घास के मैदानों को बचाया जा सके.”
वहीं इंजीनियर त्वेसांग पालजोर कहते हैं, “अभी ये पायलट प्रोजेक्ट पूरा हो रहा है. लद्दाख एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी यहां शोध करेगी और पता करेगी कि क्या ऊंचाई पर सोलर पैनल लगाने से घास बचाई जा सकेगी.”
पांग में पायलट प्रोजेक्ट का काम लगभग पूरा हो गया है. इससे बनने वाली बिजली का इस्तेमाल स्थानीय ज़रूरतों को पूरा करने के लिए किया जाएगा.
यहां क़रीब छह फिट की ऊंचाई के खंभों पर सोलर पैनल लगाए गए हैं. सोलर पैनल की दो लाइनों के बीच खाली जगह भी छोड़ी गई है. इनके नीचे से जानवर तो गुज़र सकेंगे लेकिन घास बचेगी या नहीं, ये शोध के बाद ही पता चलेगा.
पीटी रुद्र गौड़ कहते हैं, “सोलर पैनल के प्लेटफार्म की ऊंचाई बढ़ाने से ख़र्च भी बढ़ रहा है. हम ये सब इसलिए ही कर रहे हैं ताकि घास को बचाया जा सके. प्रशासन चरवाहों की चिंताओं को लेकर गंभीर है.”
लेकिन स्थानीय चरवाहे इसे लेकर बहुत उत्साहित नहीं हैं. त्सेरिंग स्तोबदान कहते हैं, “इतना बड़ा सोलर पार्क बनेगा, हम वहां भेड़े लेकर कैसे जा पाएंगे, भेड़ों के लिए पैनल के नीचे से निकलना भी आसान नहीं होगा.”
घास चराने और बड़े एनर्जी प्रोजेक्ट को लेकर अफ़्रीका, एशिया और लातिन अमेरिका में किए गए एक अंतरराष्ट्रीय शोध में दावा किया गया है कि बड़े ग्रीन एनर्जी प्रोजेक्ट का असर स्थानीय चरवाहों पर होता है और आमतौर पर ना ही उनसे सलाह ली जाती है और ना ही मंज़ूरी.
आदिवासी लोगों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र की घोषणा जिसे साल 2007 में अपनाया गया था स्थानीय समुदायों के आर्थिक, राजनीतिक और पारंपरिक अधिकारों को बचाने पर ज़ोर देती है. इसमें पारंपरिक ज़मीनों और संसाधनों पर उनका अधिकार भी शामिल है.
चंगपा चरवाहे इन घास के मैदानों पर सिर्फ़ आर्थिक तौर पर ही निर्भर नहीं है बल्कि उनकी पूरी ज़िंदगी इनके इर्द-गिर्द घूमती है.
त्सेरिंग स्तोबदान कहते हैं, “यहां रहना बहुत मुश्किल है, बहुत से चरवाहे ये काम छोड़ चुके हैं. अगर ज़मीन नहीं रही तो जो बचे हैं वो भी छोड़ देंगे.”
पिछले कुछ दशकों में हुए जलवायु परिवर्तन की वजह से भी घास के ये मैदान सिमट रहे हैं. घास और चारे की कमी की वजह से भेड़ों और बकिरयों की बड़े पैमाने पर मौत की घटनाएं भी समाने आई हैं.
लद्दाख दोराहे पर खड़ा नज़र आता है. एक तरफ़ सौर ऊर्जा की चमक और देश में बिजली की ज़रूरतें पूरी होने की उम्मीदें हैं और दूसरी ओर, चंगपा लोगों की चिंता और अनजाना भविष्य है.
ग्रीन एनर्जी के क्षेत्र में आगे बढ़ रहे भारत के सामने चुनौती यही है कि ये विकास सिर्फ़ रोशनी पहुँचाने तक ही सिमटा न रहे बल्कि इस ठंडे विशाल रेगिस्तान के लोगों की विरासत और उनकी ज़रूरतों का भी पूरा ध्यान रखे.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.
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