नटराज नखत अपने 15 हज़ार ड्रैगन फ्रूट के पेड़ों के बीच टहलते हुए आत्मविश्वास से भरे किसान लगते हैं.
80 साल की उम्र के कॉमर्स ग्रेजुएट नटराज बिहार में किशनगंज ज़िले के ठाकुरगंज के रहने वाले हैं.
कैक्टस प्रजाति के इस फल को देखकर नटराज कहते हैं, "हमें नई सरकार से एक अदद बाज़ार चाहिए. बाकी तो इसकी खेती हम यूट्यूब और अन्य जगहों से देख-देखकर सीख ही गए हैं. लेकिन हम बाज़ार के लिए बंगाल पर निर्भर रहे, ये तो अच्छी बात नहीं है."
राजधानी पटना से 370 किलोमीटर दूर किशनगंज बिहार का एक ऐसा ज़िला है जहां पर अलग-अलग तरह की खेती होती है.
किशनगंज के किसानों ने अपने बूते पर चाय, अनानास, ड्रैगन फ्रूट, तेज पत्ता और वनीला की खेती बीते तीन दशकों में की है.
किशनगंज शहर के चौक चौराहों पर आपको तीन चीजें खूब दिखती हैं. ड्रैगन फ्रूट, स्थानीय ब्रांड्स की चायपत्ती की दुकानें और अनानास बेचते ठेले वाले.
फल बेचने वाले राशिद कहते हैं, "यहां लोग खूब ड्रैगन फ्रूट और अनानास खाते हैं. स्थानीय तौर पर उगने की वजह से ये आसानी से उपलब्ध होता है और सस्ता मिल जाता है. इसलिए लोग खूब पसंद करते हैं."
शुरुआत कैसे करें?किशनगंज शहर से बाहर निकलते ही सड़क के दोनों तरफ़ चाय के कई एकड़ में फैले बागान नज़र आते हैं जिसमें चाय की पत्ती तोड़ती महिलाएं आपको असम और बंगाल के चाय बागान की याद दिलाती हैं.
दरअसल किशनगंज में खेती में जिस तरह की विविधता दिखती है, उसकी शुरुआत चाय से ही हुई थी.
यहां पर भी किसान पहले पारंपरिक फसलें- गेहूं और धान ही उगाते थे. कुछ किसान केले की भी खेती करते थे. ओंकारनाथ राय उनमें से एक हैं जिन्होंने केले की खेती छोड़कर चाय की खेती करनी शुरू की.
किशनगंज के गलगलिया में अपने बागान में खड़े ओंकारनाथ राय बताते हैं, "बिहार के पूर्व राज्यपाल ए आर किदवई यहां आए थे. उन्होंने यहां की जलवायु देखकर कहा कि किशनगंज में भी चाय की खेती हो सकती है. उसके बाद कुछ बड़े किसानों ने चाय की खेती शुरू की. उनको देखकर दूसरे किसान भी चाय की खेती में लग गए."
"मैंने भी अपने भाइयों के साथ साल 2000 में ये खेती कुछ एकड़ में शुरू की. अभी हम लोग सिर्फ़ चाय की खेती 30 एकड़ में करते हैं. यहां की जलवायु चाय की खेती के लिए ठीक थी. चाय की खेती ऐसी जगह होनी चाहिए जहां पानी नहीं लगे और हल्की छाया मिलती रहे."
चाय की खेती के चलते इस इलाके़ में कई चाय फैक्ट्रियां भी लगीं, जहां चाय पत्ती को मार्केट में भेजने के लिए तैयार किया जाता है. इन फैक्ट्रियों में स्थानीय लोगों के साथ-साथ दूसरे प्रदेशों से आए लोग भी काम करते हैं. बागान से आई चाय की पत्तियों को सुखाकर चाय बनाई जाती है.
राज्य सरकार ने चाय की खेती को बढ़ावा देने के लिए 'चाय विकास योजना' बनाई है. लेकिन किशनगंज में चाय की खेती करने वाले लूपर (एक तरह का कीड़ा) से परेशान हैं.
ओंकारनाथ राय कहते हैं, "बीते पांच साल से हम लूपर से परेशान हैं. ये चाय की पत्ती आधी चट कर जाता है. इसके चलते पत्तियों के दाम भी नहीं मिलते. चाय में दवा (कीटनाशक) बहुत ज़्यादा लूपर के चलते डालनी पड़ती है. फिर पांच रुपये प्रति किलो चाय की पत्ती की तुड़ाई मजदूर लेता है. 12-13 रुपये प्रति किलो की दर से फैक्ट्री वाले चाय की पत्ती लेते हैं. हमारी बचत दिन ब दिन कम होती जा रही है. फिर मौसम भी पहले जैसे साथ नहीं दे रहा. सरकार को जल्दी कुछ हमारे लिए गंभीरता से सोचना चाहिए."
किशनगंज ज़िले ने 'एक ज़िला, एक उत्पाद योजना' (ओपीडीपी) के तहत चाय को चिह्नित किया है. ज़िले की वेबसाइट के मुताबिक़, ज़िले में 11 चाय कारखाने हैं.
हाल के सालों में किसानों ने चाय की खेती से लेकर कारखाने और खुद की चाय कंपनी खड़ी की है. लेकिन उनका कहना है कि बदलता मौसम और सरकारी उदासीनता उन्हें परेशान कर रही है.
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इस तरह की परेशानी का सामना गलगलिया से कुछ किलोमीटर दूर लोहाबाड़ी गांव के किसानों में भी पसरी दिखाई देती है. इस गांव में किसान अनानास, चाय, तेजपत्ता और मक्का की खेती ही करते हैं.
गांव के किसान संजय चौहान ने अनानास की खेती 15 साल पहले शुरू की थी.
वो बताते हैं, "साल 2014 में नीतीश कुमार यहां अनानास की खेती देखने आए थे. मुख्यमंत्री ने हम लोगों से इसकी समस्याएं भी जानी थीं और सब्सिडी देने का वायदा भी किया था लेकिन कोई लाभ नहीं मिला."
"हम लोगों को अपना सारा अनानास बंगाल की बिधाननगर मंडी में ले जाकर बेचना पड़ता है. वहां बंगाल की मनमर्जी से रेट चलता है. सरकार हमें बिहार में मार्केट दे ताकि हमें सही रेट मिल सके. और खाद को भी सही समय पर उपलब्ध कराए."
लोहाबाड़ी गांव में बंगाल से आए किसान भी अनानास की खेती करते हैं. वो खेती की जमीन किराए पर लेकर यहां खेती कर रहे हैं.
राम प्रसाद बिस्वास उनमें से एक हैं.
वह बताते हैं, "बिहार में मेहनती मजदूर मिल जाते हैं. इतने साल से यही काम करते-करते ये मजदूर पारंगत हो गए हैं. फिर यहां मिट्टी अच्छी है और बंगाल पास ही है. अनानास के खेत में पानी जमा नहीं चाहिए यानी जमीन थोड़ी ऊंची होनी चाहिए. बंगाल से रोजाना आने-जाने में कोई ख़ास मुश्किल नहीं आती. लेकिन इस खेती में खाद का प्रयोग दूसरी फसलों के मुकाबले ज़्यादा होता है इसलिए सरकार को खाद उपलब्ध कराना चाहिए."
दरअसल अनानास की खेती जितनी मुश्किल है, उससे ज़्यादा मुश्किल किसानों के लिए इस फल की बिक्री के लिए मार्केट मिलना है.
किशनगंज के सबसे नज़दीक वाली मंडी पश्चिम बंगाल की बिधाननगर मंडी है.
राम प्रसाद बिस्वास बताते हैं, "केरल सरकार अनानास के लिए एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) जारी करती है, ऐसा बंगाल–बिहार की सरकार क्यों नहीं करती? अगर सरकारें ऐसा करेंगी तो किसानों को कम से कम इस बात का संतोष रहेगा कि उन्हें कुछ पैसा हाथ में जरूर आएगा."
युवा किसान रोशन कुमार राजभर भी कहते हैं, "सरकार को खाद, मंडी और जूस की फैक्ट्री खोलनी चाहिए. ऐसे तो किसान मर जाएगा. चुनाव के समय सब नेता यहां आते हैं लेकिन हमारे लिए कोई कुछ नहीं करता."
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दरअसल ये किसान अपने उत्पाद बेचने के लिए बहुत ज़्यादा पश्चिम बंगाल की मंडियों पर निर्भर हैं.
लेकिन नटराज नखत ने इस परेशानी का हल निकाला. उन्होंने अपने उत्पादन की खपत किशनगंज में ही करने का फ़ैसला लिया.
नटराज नखत बताते हैं, "पहले-पहले हम लोग फल वालों के पास जाते थे तो साथ में चाकू लेकर जाते थे और उन्हें वही काटकर खिलाते थे. धीरे-धीरे ये पॉपुलर हुआ और ठाकुरगंज, किशनगंज और आसपास के इलाकों में लोकल मार्केट डेवलेप हो गया."
"हम लोग दो क्विंटल तक सप्लाई करते हैं. जून से दिसंबर तक ड्रैगन फ्रूट निकलता है और उसके बाद भी ये उपलब्ध हो सके, इसके लिए हमने अपना पर्सनल कोल्ड स्टोर बनवा लिया है."
दरअसल 2010 में जब नटराज नखत सिंगापुर गए थे तो उन्होंने पहली बार ड्रैगन फ्रूट देखा.
भारत वापस आकर उन्होंने कोलकाता की एक नर्सरी से संपर्क किया और उससे ड्रैगन के 100 पेड़ मंगवाए. इन पेड़ों ने 2012 में अपनी पहली फसल यानी ड्रैगन फ्रूट दिए. लेकिन इस फल से कोई परिचित ही नहीं था. तो नटराज ने चाकू से काट-काटकर सबको खिलाया ताकि थोक और खुदरा फल वाले इसे बेच सकें. आज नटराज के पास ड्रैगन के 15,000 पेड़ हैं और इन पेड़ों की नर्सरी भी उन्होंने तैयार की है.
नटराज बताते हैं, "दरअसल इसकी खेती में शुरुआत में निवेश ज़्यादा होता है इसलिए सरकार को इसके लिए मदद करनी चाहिए. इसमें एक एकड़ में 5 से 6 लाख की लागत आती है. लेकिन एक बार पेड़ लग जाए तो वो 15 से 20 साल तक चलते हैं."
उनका दावा है, "अगर ठीक से खेती की जाए तो 4 से 5 लाख सालाना एक एकड़ से मुनाफा हो सकता है. सरकार को इसके लिए मंडी और तकनीकी सहायता देनी चाहिए. सरकार अगर ऐसा करेगी तो विदेशों पर ड्रैगन फ्रूट के लिए निर्भरता कम होगी."
किशनगंज में क्यों हो रही ऐसी खेती?ड्रैगन फ्रूट को '21वीं सदी का चमत्कारिक फल' भी कहा जाता है.
प्रेस इंफॉर्मेशन ब्यूरो (पीआईबी) के मुताबिक़, भारत में साल 2021 में 15,491 टन आयात हुआ था जो साल 2017 में सिर्फ़ 327 टन था. ऐसे में केंद्र सरकार ड्रैगन फ्रूट के उत्पादन पर जोर दे रही है.
किशनगंज के ठाकुरगंज में तीन किसान ड्रैगन फ्रूट की खेती कर रहे हैं. सागर शाह पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी स्थित बागडोगरा एयरपोर्ट से हफ़्ते में दो दिन ड्रैगन फ्रूट खरीदने आते हैं. वो बताते हैं, "51 किलोमीटर से आता हूं, यहां ड्रैगन फ्रूट लेने. पहले सिलीगुड़ी से लेता था लेकिन यहां कुछ सस्ता पड़ता है तो यहीं से ले जाता हूं. लोग इसको खूब पसंद करते हैं."
हिमालय की तराई में बसे किशनगंज में इस तरह की खेती होने की वजह क्या है?
कृषि विज्ञान केन्द्र किशनगंज में हॉर्टिकल्चर स्पेशलिस्ट मंजू कुमारी बीबीसी से बताती हैं, "किशनगंज में खेती में बहुत विविधता है. यहां की मिट्टी का पीएच हॉर्टिकल्चर फसलों के लिए बहुत अनुकूल है."
"हॉर्टिकल्चर क्रॉप्स जैसे चाय, अनानास, ड्रैगन फ्रूट के लिए पीएच 5.5 से 7 के बीच होना चाहिए, जो यहां है. लेकिन दिक्कत की बात है कि यहां मार्केट नहीं है. किसान बहुत तरीके की खेती कर रहे हैं लेकिन उनके पास अपने उत्पाद बेचने का मार्केट नहीं है."
"यहां के किसान सब कुछ बंगाल बेच देते हैं. मखाना यहां होता है लेकिन उसके लिए प्रोसेसिंग यूनिट नहीं है. किसान बहुत मेहनत कर रहे हैं लेकिन उनको दाम नहीं मिल रहा है."
मंजू कुमारी बताती हैं कि बिहार में सबसे ज़्यादा बारिश किशनगंज में होती है. यहां 2,269 एमएम बारिश होती है.
किशनगंज के किसानों ने अपने दम पर खेती में अपनी पहचान पूरे बिहार में बना ली है लेकिन अब उनको इंतज़ार सरकारी मदद का है. किसानों का कहना है कि ये देखना होगा कि इस चुनाव के बाद भी उनकी परेशानियों का हल होता है या नहीं.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.
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